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________________ ३५४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ अहंकृतानां नरके प्रविष्टा गति धुवं लोक विनिन्दितानाम् । प्राज्ञन तस्मात् परिवर्जनीयो दो विनाशककरः सदैव ॥ . लोक में निन्दित अहंकारियों की गति निश्चित रूप से नरक बताई गयी है। इसलिए प्रज्ञाशील पुरुष को सदैव विनाशकारक अहंकार का त्याग करना चाहिए।' उत्तराध्ययन सूत्र में भी बताया गया है- "माणेण अहमा गई।" अभिमान से अधम गति प्राप्त होती है। पाश्चात्य विचारक Defoe (डीफो) भी कहता है-"Pride, the first peer and president of hell." अहंकार नरक का पहला सम्भ्रान्त व्यक्ति और अध्यक्ष है। अभिमान शत्रु कहाँ हमला करके अड्डा जमाता है . प्रश्न होता है कि अभिमान शत्रु कहाँ अड्डा जमा कर रहता है। वह आक्रमण करके किस चीज पर कब्जा करता है ? वास्तव में गहराई से देखा जाये तो मानव जीवन में आत्मा का सर्वश्रेष्ठ स्थान हृदय ही है। हृदय के माध्यम से ही आत्मा सभी अध्यात्म शक्तियों का विकास करता हैं । यदि हृदय संकीर्ण, कुण्ठित, शक्ति हीन, साहस हीन, उत्साह रहित, ज्ञान-दर्शन बल से रहित हो जाय तो फिर आत्मा का उस पर कब्जा नहीं रह सकता। फिर तो अभिमान रूपी शत्रु ही उस पर कब्जा जमा लेता है। आत्मा के लिए समस्त गुणों का किला हृदय है। अभिमान शत्रु उसी हृदय पर हमला करता है, और उसी पर कब्जा करके वहीं अपना अड्डा जमा लेता है। लॉर्ड क्लरैंडन (Lord Clarendon) ने ठीक ही कहा है "The seat of pride is in the heart and only there and if it be not there, it is neither in the look, nor in the Clothes." अहंकार का आसन मनुष्य के हृदय में है, और सिर्फ वहीं है; अगर यह वहाँ नहीं है तो, फिर यह न तो दृष्टि में है, और न कपड़ों में है। वास्तव में, अभिमान रिपु मनुष्य से सबसे बहुमूल्य और गुणों के धाम हृदय रूपी किले पर ही आक्रमण करता है और वहीं अपना स्थान जमाता है। जैसे कि नीतिकार ने स्पष्ट कहा है एकः सकलजनानां हृदयेषु कृतास्पदो मदशत्रुः । येनाविष्टशरीरो न श्रृणोति, न पश्यति स्तब्धः ॥ 'एकमात्र मदशत्रु ही समस्त मानवों के हृदयों में स्थान बनाये हुए है। इस मद के मानव शरीर में आविष्ट होने पर अभिमानी मनुष्य न तो और कुछ सुनता है, न देखता है।' अभिमान शत्रु उसका आत्मिक कार्य-कलाप सारा ठप्प कर देता है। ___ अतः इस अभिमान शत्रु से बचने के लिए हृदय रूपी किले पर मजबूत पहरा होना चाहिए, तभी अभिमान शत्रु को परास्त करके भगाया जा सकता है। अन्यथा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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