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शत्रु बड़ा है, अभिमान
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इसी प्रकार अहंकार को दानवीय प्रधान पाप' भी कहा गया है। अहंकार इतना सूक्ष्म व गहरा दोष है कि वह सीधा आत्मा के साथ लिपटा हुआ है। जैसा कि एक विचारक Tupper (उप्पर) ने कहा है
"Deep is the sea and deep is the hell, but pride mineth deeper it is coiled, as a poisonous worm about the foundation of the
soul.
समुद्र गहरा होता है और नरक भी गहरा; किन्तु अहंकार खान की तरह बहुत ही अधिक गहरा होता है। यह आत्मा की आधारशिलाओं के चारों ओर जहरीले सांप की तरह कुण्डली मारे बैठा रहता है। शत्रुराज अभिमान की इतनी बड़ी सेना है, इससे तो आप सब परिचित हो गए होंगे। इतनी बड़ी सेना के साथ जो अभिमान शत्रु आपके जीवन पर आक्रमण करता है, क्या उससे सावधान रहना, उससे बचकर रहना आपका कर्त्तव्य नहीं है ?
अभिमान इसलिए शत्रु है कि यह हमारी आत्मा का सबसे ज्यादा अहित करता है। सुभाषितरत्न भाण्डागार में अभिमान को सर्वाधिक दोष कर्ता बताते हुए कहा है
होनाधिकेषु विदधात्यविवेकमावं धर्म विनाशयति, संचिनुते च पापम् । दौर्भाग्यमानयति, कार्यमपाकरोति कि किन दोषमथवा कुरुतेऽभिमानः । नीति निरस्यति, विनीतमपाकरोति कीति शशांकधवलां मलिनीकरोति । मान्यान न मानयति मानवशेन हीनः
प्राणीति मानमपहन्ति महानुभावः ॥ अर्थात्-जो अपने से गुण आदि किसी बात में हीन या अधिक हों, उनके प्रति अभिमान अविवेक करता है, वह धर्म का नाश और पाप का संचय करता है, दौर्भाग्य लाता है, कार्य बिगाड़ देता है, कहाँ तक कहें, अभिमान कौन-कौन-सा दोष नहीं करता है ? वह नीति न्याय को दूर धकेल देता है, विनयी पुरुष को भी निकाल देता है, मनुष्य की चन्द्रमा-सी उज्ज्वल कीर्ति को मलिन कर देता है, सामान्य व्यक्तियों को अभिमान वश सम्मान नहीं देता, और अपने से वह हीन प्राणी है, ऐसा समझकर अभिमानी महानुभाव उसका अपमान कर देता है।
इसके सिवाय अहंकार शत्रु पर विजय इसलिए विजय पाना आवश्यक है कि वह आत्मा को नरक या तिर्यंच गति में धकेल देता है, वह आत्म-गुणों का सदैव विनाशक है। जैसे कि विष्णु धर्मोत्तर में कहा गया है
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Pride is the master sin of the devil.
-E. H. Chapin
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