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________________ ३५२ आनन्द प्रवचन : भाम ८ घमण्ड एक ऐसी बुराई है, जो अपने आप में गर्व करती है वह प्रत्येक मनुष्य को अपने से भिन्न रूप में देखने के लिए प्राप्त करता है, जबकि स्वयं को अतिमात्रा में देखने के लिए प्रेरित करती है। जहाँ अभिमान आ जाता है, वहाँ दूसरे का उत्कर्ष देखकर ईर्ष्या, द्वेष और मत्सर भी स्वाभाविकरूप से आ जाते हैं। एक विचारक Roche foucauld (रोशे फाउकॉल्ड) कहता है "Pride, which inspires us with so much every, serves also to moderate it." अभिमान, जो कि हमें ईर्ष्या या द्वेष की ओर इतना अधिक प्रेरित करता है, इसे कम करने की भी सेवा करता है। अभिमान के कारण बड़े-बड़े हिंसा काण्ड संसार में हुए हैं, कहीं धर्म-सम्प्रदाय के अहंकार के कारण झगड़े हुए हैं, कहीं जातीय, राष्ट्रीय या प्रान्तीय अहंकार को लेकर सिरफुटौव्वल हुई है। कहीं वर्गीय-अहं को लेकर मारपीट, दंगे, हत्या एवं अग्निकाण्ड हुए हैं। इन सब बुराइयों का सरदार या नेता अहंकार ही रहा है। ब्लेयर (Blair) ने भी इसी बात की पुष्टि की है "Pride Fills the world with harshness and serverity. We are rigorous to offences as if we had never offended." अहंकार संसार को कठोरता और गम्भीरता से भर देता है । अहंकार के वश हम अपराधों के मामले में इतने निर्दय हो जाते हैं, मानो हमने कभी किसी को अप्रसन्न नहीं किया। जहाँ अहंकार आ जाता है, वहाँ विनय तो झटपट नौ दो ग्यारह हो ही जाता है। क्योंकि अहंकार तो विनय का कट्टर दुश्मन है । वह तो पहले ही कदम पर अविनय से दोस्ती करता है । जैसा कि दशवकालिक सूत्र में कहा है __ 'माणो विणयनासणो' -अभिमान विनय का नाश करने वाला है । अभिमानी के साथ मैत्री भी टिक नहीं सकती क्योंकि वह अपने से भिन्न किसी को कुछ समझता भी नहीं। जैसा कि एक अंग्रेज कहता है "The proud never have friends, not in prosperity for then they know nobody, and not in adversity, for then nobody, knows then." . अभिमानी मानवों के कभी मित्र नहीं होते, न तो समृद्धि के समय होते हैं, क्योंकि उस समय वे किसी को नहीं जानते, और न ही विपत्ति के समय होते हैं, क्योंकि तब उन्हें कोई नहीं जानता।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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