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________________ शत्रु बड़ा है, अभिमान ३५५ अकस्मात् किसी भी समय सदलबल आ कर अभिमान शत्रु हृदय-भवन पर आक्रमण कर सकता है और उस पर कब्जा जमा सकता है । गोस्वामी तुलसीदासजी ने एक बार बहुत ही विनयपूर्वक अपने आराध्य देव भगवान् श्रीराम से उपालम्भ पूर्ण शब्दों में प्रार्थना की थी मैं केहि कहौं विपति अतिभारी, श्रीरघुवीर दीन हितकारी। मम हृदय भवन प्रभु तोरा, तहं आय बसे बहु चोरा ॥ अतिकठिन करहिं बरजोरा, मानहिं नहीं विनयनिहोरा । तम, मोह, लोभ अहंकारा, मद, क्रोध बोधरिपु मारा ॥ अति कहिं उपद्रवनाथा, मरदहि मोहि जान अनाथा। मैं एक, अमित बटमारा । कोऊ सुने न मोर पुकारा ॥ भागेहु नहिं नाथ उबारा, रघुनायक ! करहु संभारा। भाव स्पष्ट हैं। क्या आप भी अहंकार आदि शत्रुओं-चोरों या लुटेरों से अपनी आत्मा के भवन-परमात्मभवन-की रक्षा करना चाहते हैं ? यदि हाँ, तो आपको भी इन्हें भगाने के लिए अपनी आत्म शक्ति बटोरनी चाहिए। आपकी पुकार कोई सुनेगा नहीं, न आपकी कोई सहायता ही करेगा। तीर्थंकर भगवान् एवं धर्मगुरु यानी देव और गुरु आपको प्रेरणा दे सकते हैं, आपको मार्गदर्शन दे सकते हैं। चलना आपको ही पड़ेगा, उस मार्ग पर । आपको यह दृढ़ संकल्प कर लेना है कि मुझे अभिमान रूपी शत्रु से अवश्य लड़ना है। ___ अभिमान शत्रु के प्रविष्ट होने पर सभी गुणों का ह्रास अगर आप अभिमानरूपी शत्रु से हार खा गए अथवा उसके सामने आपने हथियार डाल कर आत्मसमर्पण कर दिया तो फिर अभिमान के दलबल सहित आने पर आपके किसी भी सद्गुण का पता नहीं लगेगा। अभिमान के आने पर सारे सद्गुण फीके पड़ जाएँगे। मनुष्य में कितने ही महान् और कितनी ही संख्या में सद्गुण क्यों न भरे हों, यदि उसमें एक अहंकार का दोष मौजूद है, तो वह उसके सारे गुणों को झूठा बना देगा। उसका विकास रुक जाएगा । उसके गुणों से न तो संसार को कोई लाभ होगा और न ही स्वयं भी उसका कोई लाभ उठा पाएगा। अहंकार गुणी से गुणी व्यक्ति को दुर्गुणी बना देता है। अगर मनुष्य अहंकार को नहीं हटा पाएगा तो उसके समस्त गुण या तो दब जाएँगे या नष्ट हो जाएंगे। इसीलिए कहा हैजरारूपं हरति, धर्ममाशा, मृत्युः प्राणान्, धर्नचर्यामसूया। क्रोधः श्रियं, शीलमनार्य सेवा, ह्रियः कामः सर्वमेवाभिमानः ।। -विदुरनीति ३/५० 'जरा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, ईर्ष्या धर्मचर्या को, क्रोध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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