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________________ अहिंसा : अमृत को सरिता ३४७ जिसकी दाहिनी भुजा पर भीम चढ़कर आया था। भीम एक ओर छिप कर बैठ गया। कापालिक ने बाए हाथ में एक पुरुष को पकड़ रखा था, दाँए हाथ में उसके तलवार थी। वह उस पुरुष से कह रहा था-अपने इष्ट देव का स्मरण कर ले, अब मैं तेरा मस्तक काट कर देवी की पूजा करूंगा।" उस पुरुष ने कहा- "मेरे तो परम उपकारी वीतराग देव का सर्वप्रथम शरण हो, तदनन्तर परोपकारी दयावान धर्मिष्ठ मित्र भीमकुमार का शरण हो।" यों कहते ही भीमकुमार ने एकदम प्रगट होकर दुष्ट कापालिक को ललकारा-अरे पापिष्ठ ! ठहर जा तुझे मजा चखाता हूँ। तू मेरे मित्र की हत्या करना चाहता है। मेरे रहते तू उसका बाल भी बांका नहीं कर सकता। मैं वही भीमकुमार हूँ।" कापालिक सहसा मन्त्रिपुत्र को छोड़ कर भीम की ओर दौड़ा । भीम ने उसके दोनों पैर पकड़ कर नीचे पटक दिया और उसकी छाती पर पैर रख कर पीटने लगा।" यह देख देवी (कालिका) व्याकुल होकर कहने लगी"भीम ! इसे मत मार । यह मेरा सेवक है। 108 मनुष्यों के मस्तक कमल चढ़ा कर यह मेरी पूजा करेगा । तब मैं प्रसन्न होकर इसे वरदान दूंगी । अभी तो तेरा पराक्रम देख कर तुझ पर तुष्ट हूं। वर मांग।" भीम बोला-माता ! अगर तू मुझ पर तुष्ट है तो आज से मन-वचन-काया से जीवहिंसा का त्याग कर । सभी धर्मों का मूल दया है । दया से सर्व मनोवांछित फल मिलते हैं। हिंसा से अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करना पड़ता है। अतः हिंसा का त्याग करो, दयामृत का सेवन करो।" यह सुन कर देवी ने कहा- अच्छा, आज से मैं समस्त जीवों को अपने समान मान कर दया करूँगी । किसी को न मारूंगी। यों कह कर देवी अदृश्य हो गई। मन्त्रिपुत्र ने अपनी आप बीती कह सुनाई और कुमार का अत्यन्त उपकार माना । कापालिक ने भी कहा-"कालिका देवी को आपने दया धर्म अंगीकार कराया, इससे मैं प्रसन्न हूँ और आपको मैं अपना धर्म गुरु मानता हूँ। मैं आपका सेवक हूँ। आप तो अनेक गुणों से समृद्ध हैं।" प्रातःकाल एक देवाधिष्ठित हाथी दोनों को अपने पर बिठाकर एक उजड़े हुए नगर में ले गया। कुमार नगर के मुख्य द्वार पर मंत्रिपुत्र को बिठाकर स्वयं नगर की गतिविधि देखने लगा। इतने में एक सिंह को अपने मुंह में एक पुरुष को पकड़कर ले जाते देखा तो कुमार ने उसे छोड़ देने को कहा। यह भी कहा कि अगर आप कोई देव हैं तो कवलाहार आप के लिए उचित नहीं, तथापि मांस खाने की इच्छा हो तो मेरा शरीर का मांस मैं दे देता हूँ, उसे खालो।" सिंह बोला-आपका कहना ठीक है, पर इस मनुष्य ने पिछले जन्म में मुझे बहुत दुःख दिया है, अतः उसका बदला मैं इस पापी से सौ-सौ भवों तक लूं, तो भी मेरा क्रोध शान्त नहीं होगा।" कुमार ने कहा- "अरे भद्र ! यह तो बेचारा दीन है, दीन पर इतना क्रोध ! फिर क्रोध करके बदला लेने से अनेक जन्म बिगड़ते हैं। अतः क्रोध करना छोड़ दे।" परन्तु सिंह नहीं माना । उलटा कुमार पर झपटने लगा, तब कुमार भी अपनी तलवार उसके मस्तक पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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