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अहिंसा : अमृत की सरिता ३४५ प्रेम आदि का अमृत बहता होगा, वहाँ क्रोध, अभिमान, लोभ, मोह, कपट, मत्सर आदि कीटाणु नहीं होंगे। क्षमा और वात्सल्य का, मैत्री और आत्मीयता का उस हृदय में स्थायी निवास हो जाएगा। परन्तु जिस हृदय में काम, क्रोध आदि की गन्दगी होगी, वहाँ अमृत नहीं रहेगा, वह हृदय विषाक्त हो जाएगा। उस हृदय में प्रेम भी होगा तो वहाँ स्वार्थ और वासना की दुर्गन्ध होगी। छलकपट एवं मायाचार की बदबू वहाँ फैली हुई होगी। बाहर से उस व्यक्ति का व्यवहार मधुर, प्यार-भरा प्रतीत होगा, परन्तु अन्दर से कटु और कपट पूर्ण होगा। परन्तु हृदय में दया, प्रेम, स्नेह, करुणा आदि अमृत भावनाएँ निखालिस होंगी तो वे सब अमृत बनेंगी और अमृत का काम करेंगी। जिसके भी सम्पर्क में वह व्यक्ति आएगा, उसको अपनी दया आदि के अमृत से प्रभावित कर देगा। उसके हृदय में स्थित दयामृत का पौधा बढ़ता-बढ़ता एक दिन विशाल वृक्ष के रूप में पल्लवित-पुष्पित हो जाएगा। इसीलिए कहा है- "दुनिया के जितने भी धर्म हैं, जिन्हें मानव अपनाता है, वे सभी दयामृत की सरिता के महातट पर पल्लवित, पुष्पित एवं अंकुरित होकर बढ़ते हैं। अगर दयारूपी अमृत सरिता सूख जाए तो वे सभी धर्म, सूख कर झड़ जाएंगे। वे कब तक हरे भरे रह सकते हैं ? |
एक पाश्चात्य विद्वान् ने ठीक ही कहा है
"A mind full of piety and knowledge is always rich; it is a bank, that never fails; it yields a perpetual dividend of happiness.”
"दया और ज्ञान से भरा हुआ हृदय हमेशा धन से परिपूर्ण होता है । ऐसा हृदय एक बैंक है, जो कभी फेल नहीं होता। यह खुशी का एक स्थायी लाभांश देता रहता है।" .. कमलपुर के हरिवाहन राजा का पुत्र भीमकुमार जैसा शरीर से सुकुमाल था, वैसा वह हृदय से भी कोमल था। बुद्धिसागर मन्त्री के पुत्र मति-सागर के साथ उसकी गाढ़ी दोस्ती थी। एक दिन शुभ समाचार प्राप्त हुए कि नगर के बाहर उद्यान में देवचन्द्राचार्य पधारे हैं। राजा हर्षित हो कर समस्त राजपरिवार, राजकुमार, मन्त्री एवं प्रतिष्ठित नागरिकों सहित आचार्यश्री के वन्दनार्थ गए। सभी यथायोग्य स्थान पर बैठ गए, तब आचार्यश्री ने उपस्थित जनसमूह को धर्मोपदेश दिया। जिसे सुनकर राजा ने सम्यक्त्व सहित श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए । राजकुमार को भी गुरु देव के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई। आचार्य श्री ने भीम को योग्य समझ कर कहा-"राजकुमार ! तुम्हें आज से मन-वचन-काया से दया की सम्यक् रूप से आराधना करनी है । क्योंकि दया दूसरे सत्य आदि सभी धर्मों की माता है । अहिंसाव्रत का विधेयात्मक रूप दया है, अहिंसावत सभी व्रतों की सुरक्षा के लिए बाडरूप
१ 'दयानदी-महातीरे सर्वे धर्मास्तृणांकुराः ।
तस्यां शोषमुपेतायां, कियन्नन्दति ते चिरम् ?"
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