SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ स्वीडन के सम्राट की बहन राजकुमारी युजिनी के हृदय में दया और करुणा का अमृत सरोवर लहराता रहता था। दुःसाध्य रोगियों की पीड़ा को देखकर उसका हृदय विकल हो उठता था। उसने निःस्वार्थ अनुकम्पा से प्रेरित होकर अपने हीरेमोतियों के आभूषण बेच डाले और एक विशाल हॉस्पिटल बनवाया, जिसमें रोगियों के उपचार के सभी अद्यतन साधन उपलब्ध थे। इतना ही नहीं, राजकुमारी स्वयं रोगियों की सेवा-सुश्रूषा करती थी। नौं के मना करने पर वह कहती-"इस प्रत्यक्ष सेवा कार्य से मुझे अत्यन्त आनन्द आता है। इसकी आनन्द-अनुभूति और सन्तुष्टि मुझे होती है।" एक बार हॉस्पिटल में एक कुष्ट रोगी आया। उससे सभी दूर रहना चाहते थे। सभी घृणा करते थे उससे । राजकुमारी को ज्ञात हुआ तो वह स्वयं उस रोगी के पास पहुँची। पूछा-"भाई ! कितने अर्से से इस रोग से पीड़ित हो ?" उसने कराहते हुए कहा- "माताजी ! मुझे इस रोग को पीड़ित हुए ६ वर्ष हो गए हैं। इसके कारण अंग-अंग में पीड़ा होती है, खून और मवाद भी बहते हैं। कोई भी मेरे निकट आना नहीं चाहता।' राजकुमारी की आँखों में आंसू छलछला आए । उसने कहा-"भाई ! चिन्ता मत करो। मैं इस पवित्र कार्य को भगवान की पूजा समझ कर करूंगी।" राजकुमारी ने झटपट पानी गर्म किया, अपने हाथों से उस रोगी के घाव धोए, फिर दवा मंगा कर पिलाई, घाव पर मरहमपट्टी की। नौकर से थोड़े फल मंगाए और रोगी को खिलाए।" यह क्रम लगभग ७ महीने तक चला। राजकुमारी ने दैनिक चर्या बनाली। आखिर एक दिन राजकुमारी की निःस्वार्थ सेवा फलित हुई। रोगी कुष्ट व्यधि से मुक्त हुआ। स्वस्थ होने के बाद जिस दिन डॉक्टर ने उसे घर जाने की अनुमति दी उस दिन वह राजकुमारी के चरणों में गिर कर अश्रुपूरित नेत्रों से कहने लगा-"मां ! आपको मैने बहुत कष्ट दिया, क्षमा कर दें। सचमुच आप मेरी दूसरी माता हैं। मां भी बच्चे की इतनी सेवा नहीं करती, जितनी आपने राजकुमारी होकर की है । आपके सेवा और प्रेम के अमृत ने ही मेरा रोग नष्ट करके, मुझे नया जीवन दिया है। मैं आपकी सेवा को आजीवन भूल नहीं सकूँगा।" राजकुमारी की आँखें भी गीली हो गयीं । भाई ! हॉस्पिटल को बनाने में मैने जो हीरे मोती के आभूषण दिये थे, आज सचमुच वे तुम्हारी आँखों के मोती (अश्रु) के रूप में ऊग निकले हैं । मैं धन्य हो गई हूँ, इन्हें देख कर।" ____बन्धुओ ! युजिनी का दानामृत और सेवामृत सच्चे माने में अमृत बन गया। यह अहिंसामृत का ही चमत्कार है । अहिंसा : दयामृत के रूप में तीसरा दयामृत है। अहिंसामृत दयामृत के रूप में अभिव्यक्त होता है । अहिंसा देवी जिसके घट में आ जाती है, उसके हृदय से प्रेम, दया, करुणा, स्नेह, सहानुभूति आदि भावों का अमृत-निर्झर बहता है। जिस हृदय में दया, करुणा, स्नेह, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy