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अहिंसा : अमृत की सरिता ३४३
दीनबन्धु, एण्ड्रयूज अपना अध्ययन पूरा करके दक्षिण पूर्व लन्दन के ऐसे प्रदेश में जाकर रहने लगे, जहाँ चोर, शराबी, जुआरी, बदमाश और पतित लोग रहते थे । इन दीन-दुखियों की सेवा में उन्होंने चार वर्ष बिताए । एक बार एक व्यक्ति दीनबन्धु के सम्पर्क में आया, जो शराब पीकर बहुत ऊधम मचाता था । पुलिस उसे पकड़ कर जेल में भेज देती, पर वह जेल से छूट कर आता, तब दीनबन्धु उसे स्नेहपूर्वक आलिंगन करते, प्रेम से बोलते और उसके कल्याण के लिए भगवान से हृदय से प्रार्थना करते । एकदिन वह चिढ़कर बोला - "तुम मेरे पीछे क्यों पड़े हो ? मुझे तुम्हारे ईशु पर रत्तीभर भी विश्वास नहीं है ।"
बन्धु वाणी में अमृत घोल कर बोले -- " भाई ! तुझे विश्वास हो या न हो, भगवान तुझ पर स्नेह बरसाते हैं ।" बस, दीनबन्धु का यह एक वाक्य सुनकर उसका जीवन बदल गया । दीनबन्धु की सच्ची करुणा से सनी अमृतमयी वाणी ने उस पर जादू-सा असर डाला । लोग यह परिवर्तन देखकर आश्चर्यचकित हो उठे । कोई उससे पूछता - " क्यों भाई ! तुममें यह परिवर्तन कैसे आ गया ?" तो वह कहता - "भगवान मुझसे प्रेम करते हैं, इसलिए मुझे उनका प्रेमपात्र बनना ही चाहिए ।"
यही व्यक्ति आगे चलकर धर्मपादरी बना और अफ्रीका में वर्षों तक जनसेवा
की ।
यह है वाचामृत का चमत्कार, जो अहिंसा माता से अनुप्राणित हो कर एक दुष्ट व्यक्ति का जीवन परिवर्तन करने में समर्थ हुआ ।
अहिंसाः दानामृत के रूप में
हाथों से जब दान, परोपकार और सेवा के रूप में अमृत बरसता है, तब उसका मूल शक्तिस्रोत अहिंसा ही होती है । जब मनुष्य में दीन दुःखियों, रोगियों या पीड़ितों के प्रति आत्मौपम्य भावना जागती है, अनुकम्पा की लहर उठती है, दूसरे का दुःख उसे अपना दुःख लगता है, दूसरे प्राणियों को कष्ट या पीड़ा से कराहते देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है, तब वह जो दान, परोपकार और सेवा करता है, वह अमृत की तरह दुःखी और पीड़ित को, नवजीवन देने में समर्थ होता है । अतः दान, परोपकार, सेवा आदि तभी अमृतमय बनते हैं, जब उस दान, परोपकार, सेवा आदि के पीछे अहिंसा की कोमल भावनाएँ हों, अनुकम्पा बुद्धि हो, या किसी धर्मात्मा पुरुष के प्रति पूज्य बुद्धि हो । अन्यथा, जो दानादि अहंकारवश, ईर्ष्यावश, स्वार्थ बुद्धिवश, प्रतिस्पर्द्धावश, या नामना - कामना से प्रेरित होकर होते हैं, उनके पीछे उदारता, आत्मीयता, प्रेम और स्नेहभाव की सुधा नहीं होती है । वे न्यायनीतिपूर्वक धन कमाना भी जानते हैं और समय आने पर दीनदुःखी, पीड़ित प्राणियों के प्रति आत्मौपम्य भावना रखकर दान, परोपकार या सेवा के रूप में उसका व्यय करना भी जानते हैं । ऐसे ही व्यक्ति अपने दानादि को अमृतमय बना देते हैं ।
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