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________________ अहिंसा : अमृत को सरिता ३३७ "कहिए जो कुछ आपके मन में हो ! क्या इस अमृत का पानकर मैं अमर नहीं बनूंगा?" . प्रधानमन्त्री-"महाराज ! यह अमृत तो है, यह सच है, किन्तु सच्चा अमरत्व इससे नहीं मिलेगा। इस अमृत का पान करके आप अमर बनेंगे, मगर इसमें सच्चा अमरत्व नहीं है । सभा में सन्नाटा छा गया। राजा भी आश्चर्यपूर्वक उद्विग्न हो उठे। हजारों व्यक्तियों के नेत्र एवं कान प्रधानमन्त्री पर लग गये। सम्राट ने पूछा-"तब इसका क्या किया जाए ?" प्रधानमन्त्री-बोले-"इस अमृत को ढोल दीजिए।" सभा में से एक साथ कई आवाजें आयीं-महामन्त्री की बुद्धि पर पाला पड़ गया है, इनकी बुद्धि सठिया गई है, तभी कहते हैं-अमृत ढोल दो। राजन् ! ऐसा मत होने दीजिए। कितने वर्षों की साधना के बाद इस पृथ्वी पर यह अमृत बना है।" राजा ने सबको शान्त रहने का आदेश देते हुए कहा- “सुनो ! प्रधानमन्त्री जी इसका रहस्य बतायेंगे।" "अवश्य, महाराज ! मैं बताऊँगा कि सच्चा अमृत कौन-सा है ? किसके पीने से सच्चा अमरत्व प्राप्त होगा ?" प्रधानमन्त्री ने निर्भीक होकर कहा। प्रधानमन्त्री को सबने शीघ्र ही सच्चे अमृत का रहस्य समझाने को कहा। प्रधानमन्त्री बोले- "वेदों, उपनिषदों और पुराणों के रचयिता ऋषिमुनियों को आज हजारों वर्ष हो गए फिर भी भारतीय जनता याद करती है न ? मैं पूछता हूँ, वे आज भी अमर हैं या नहीं ?" सम्राट ने कहा-"हाँ, ऐसा ही है।" "परकार्यार्थ जीते जी शरीर को समाप्त करके अपनी हड्डियों का दान करने वाले दधीचि को भी विश्व याद करता है या नहीं ?"-प्रधानमन्त्री ने पूछा। सम्राट-"बेशक उन्हें हम आज भी याद करते हैं।" "एक शरणागत कबूतर की रक्षा के लिए अपना शरीर चीर कर माँस देने वाले शिवि राजा आज भी अमर हैं या नहीं ? जनता के कल्याण के लिए हलाहल विष गले में सुरक्षित रखने वाले कैलाशपति अमर हैं न ?" सम्राट बोले 'अवश्य हैं।" . तब महाराजा को ज्ञात होना चाहिए कि सच्चा अमरत्व तो अहिंसामृत को अपनाने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति दया, क्षमा, करुणा, सेवा, सहानुभूति आदि अहिंसा के अंगों का सेवन करके समर्पणपूर्वक अपनी काया घिसा डालता है, उसी को सच्चा अमरत्व मिलता है । मन, वचन, काया से अहिंसा का अमृत पान कर दूसरों को अमृत पिलाने वाले को ही सच्चा अमरत्व प्राप्त होता है। जिनके जीवन का प्रतिक्षण स्वपर-कल्याण में व्यतीत होता है वे शान्ति के धनी सेवाव्रती ही यथार्थ अमरत्वपान के अधिकारी होते हैं। अपने पास जो भी धन, साधन सत्ता, वैभव पद आदि हैं, उनका उचित उपयोग जनता जनार्दन की सेवा में, विश्व कल्याण में करता है, संचमुच वही अमरत्व प्राप्त करता है । इसलिए मेरा मन्तव्य है कि इन समस्त गुणों की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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