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________________ ३३६ आनन्द प्रवचन : भाग ८ सम्राट् - " अमृत का नाम तो सुना है, पर कैसे बनेगा, कहाँ मिलेगा ?" नौकर बोले - "वाह महाराज ! आपके पास अपार सम्पत्ति और सत्ता है, फिर क्यों नहीं बनेगा ? आप अपनी राजधानी में बड़े-बड़े रसायनशास्त्रियों को बुला कर बसाइए, उन्हें बड़ा पारितोषिक देकर आदेश दीजिए कि वे अमृत बना दें ।" सम्राट् के दिमाग में बात जँच गई । सम्राट् ने उसी समय प्रधानमन्त्री को बुला कर आदेश दिया - " अमृत निर्माण करने में कुशल रसवैज्ञानिकों को आमंत्रित करके उनसे अमृत बनवाओ ।" प्रधानमन्त्री ने देश के श्रेष्ठ रसायनशास्त्रियों और रसवैज्ञानिकों को ढूंढ-ढूंढ़ कर सम्मानपूर्वक बुलाया । उन्हें राजा की आज्ञा सुनाई । विशाल पारितोषिक के लोभ से वैज्ञानिक राजधानी में जम गए । अमृत निर्माण में व्यय के लिए राजकोश खोल दिया । वनस्पति, जड़ी-बूटी, फल, फूल, मूल, पृथ्वी के समस्त द्रव्य, रस, स्वर्ण, पारद, अभ्रक, हीरा, मुक्ता आदि द्रव्यों का ढेर लग गया और एक दिन सचमुच अमृत तैयार हो गया । सम्राट् ने ज्योतिषियों से अमृत पान का शुभ मुहूर्त निकलवाया । इसीदिन भव्य समारोह मनाने की घोषणा मण्डप बनवाया गया । अमृत की । अमृत पान के लिए सप्त धातुओं का एक खास पान के लिए जो पात्र था वह नीलम, माणिक्य तथा पुखराज से जड़ाया गया । वैतालिकों के गान शुरू हुए। शहनाइयाँ बज उठीं । राजा ने आज तमाम नागरिकों को सरकारी रसोड़े से भोजन के लिए आमंत्रित किया था । इसलिए जनता का तांता लग गया । अमृतपान का शुभदिन और शुभमुहूर्त आ पहुँचा। राजा नवनिर्मित मण्डप में इन्द्रधनुषी रंग के रत्नजटिल सिंहासन पर बैठे । देशभर में से सम्राट की इस अभूतपूर्व सिद्धि को देखने के लिए नामी कलाकार, गायक, धनिक, शूरवीर, विद्वान ज्ञानी और नेता आये हुए थे। सभी नागरिक एवं आगंतुक यथास्थान बैठ गये । फिर क्रमशः उठ उठ कर राजा को इस सिद्धि के लिए अभिनन्दन देकर अपने-अपने स्थान पर आसीन हो गये । कटोरे में अमृत भर कर परन्तु राजा की आँखें प्रधानमन्त्री की प्रतीक्षा में थी, तक नहीं आये । राजा सोचने लगे - " मानव लोक में मुझे अभिनन्दन दे ने आये हैं, पर प्रधानमन्त्री क्यों नहीं दिखते ? राशि युक्त वृद्ध प्रधानमन्त्री आये, और आँखें नीचे झुकाकर चुपचाप बैठ गये । सम्राट कुछ कुपित से होकर बोले – “मन्त्रीवर ! क्या आज का समारोह आपको पसन्द नहीं है ?" रखा गया । समक्ष आये, पर वे अभी अवसर पर सभी इतने में श्वेत केश प्रधानमन्त्री - "देवदुर्लभ यह प्रसंग मुझे है ?" सम्राट - "मन्त्रीवर ! आप इस शुभ 'इसका क्या कारण है ? देश-देशान्तर के समागत, पर आप.......।” प्रधानमन्त्री - 'महाराज' Jain Education International राजा के और सब इस अपूर्व रुचिकर न हो, यह कैसे हो सकता समारोह पर एक भी शब्द न बोले, अतिथि मुझे अभिनन्दन दे चुके, "यों कहकर रुक गए । सम्राट - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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