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________________ अहिंसा : अमृत की सरिता ३३३ बाद मरते हैं, वे भी मरणशील हैं। संसार में कोई भी शरीरधारी ऐसा नहीं है, जो मरणशील न हो, मरता न हो, सदा जीवित रहता हो। चाहे तीर्थंकर, अवतार, पैगम्बर या चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव आदि कोई भी शक्तिशाली से शक्तिशाली पुरुष क्यों न हो, उन्हें भी एक न एक दिन प्राप्त शरीर को छोड़ना पड़ता है। वे अपने आयुष्य के एक भी क्षण को घटा या बढ़ा नहीं सकते, फिर देवों की क्या विसात है कि वे अपने आयुष्य के क्षण को घटा या बढ़ा सकें, या अनन्त काल तक जी सकें। परन्तु देवों के आयुष्य पूर्ण होने को 'मरण' न कहकर शास्त्रीय परिभाषा में 'च्यवन' कहा गया है । जबकि मनुष्य के देहान्त या आयुष्य के अन्त को मरण कहा गया है। महान साधकों के लिए हमारे यहाँ 'मरण' शब्द का प्रयोग करना शोभास्पद नहीं माना जाता, इसलिए उनके देहावसान या निधन को स्वर्गारोहण या स्वर्गवास हो जाना कहा जाता है। इस दृष्टि से देखा जाय तो देवों का तथाकथित अमृत कदाचित मनुष्य प्राप्त कर ले और उसे पी भी ले तो सम्भव है, वह दीर्घायु हो जाये, स्वस्थ, सशक्त और आत्मबली हो जाये, परन्तु फिर उसका मरण कदापि न हो, ऐसा होना असम्भव है। तब फिर प्रश्न होता है कि ऐसा अमृत और कोई होना चाहिए, जिससे मनुष्य चाहे शरीर से अमरत्व प्राप्त न कर सके, किन्तु अपने जीवन, अपने उत्तम कार्यकलापों से और अपने यथार्थ यश से अमरत्व प्राप्त कर सके; अमर बन जाये। वह अमृत कौन-सा है ? और किस प्रकार का है ? इसी प्रश्न के उत्तर में गौतमऋषि कहते हैं''अमयं अहिंसा ।" अर्थात्-वह अमृत अहिंसा हैं। केवल गौतमऋषि ही नहीं, कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र भी इसी बात का समर्थन करते हैं'अहिंसव हि संसारमरावमृतसारणिः ।' -योगशास्त्र संसार रूपी मरुस्थली में अहिंसा ही एक अमृत का झरना है । वैदिक धर्म शास्त्र के मूर्धन्य महर्षि मनु भी यही कहते हैं"अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते।" -मनुस्मृति ६-६० अहिंसा प्राणियों के लिए अमृत के समान है। हाँ, तो आप समझ गये होंगे कि इस मनुष्य लोक में अगर कोई अमरत्व प्राप्त कराने वाला अमृत है तो अहिंसा है। अहिंसा के आचरण से, अहिंसा के मुख्य अंगभूत दया, क्षमा, सेवा, सहानुभूति, करुणा आदि के सेवन से मनुष्य अमृतत्व या अमरत्व को प्राप्त कर लेता है। जब मनुष्य अहिंसा के विविध कार्य करता है तो स्वाभाविक है कि जनमानस में उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति, और आदरभाव हो, लोग उसके सेवाकार्य एवं दयाकार्य से प्रभावित होकर युगों-युगों तक उसके गुणगान गायें, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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