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आनन्द प्रवचन : भाग ८
उसे अर्न्तमन से आशीर्वाद दें और उसकी यश-सौरभ चारों ओर फैले । यही अहिंसा के अमृत से अमरता का एक रहस्य है ।
दूसरा रहस्य यह है कि अहिंसा भाव अहिंसा या विधेयात्मक अहिंसा की लहरें जब मानव हृदय के कण-कण में आती हैं, मानववाणी से अहिंसा का अमृत निर्झर फूटता है, मानव के हाथ, पैर, आदि अवयवों से जब निःस्वार्थ निष्काम दया और सेवा का कार्य प्रवाह बनकर बहता है, तब असंख्यगुनी निर्जरा ( कर्मों के क्षय की प्रक्रिया ) होने लगती है और इस प्रकार अहिंसा के उत्कृष्ट भावों का रसायन आने पर चार घाती कर्मों का सर्वथा क्षय होकर केवलज्ञान प्राप्त होते देर नहीं लगती और तब आयुष्य पर्यन्त शेष समस्त अघाती कर्मों को भोग कर उनका भी सर्वथा क्षय होने पर मनुष्य सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाता है, वही सदासर्वदा के लिए अमरत्व का स्थान है, जिसे अहिंसामृत के द्वारा मनुष्य प्राप्त कर लेता है और अजर-अमर - अविनाशी बन जाता है।
इसी बात की पुष्टि सूक्तिमुक्तावली करती है— 'मोक्षं ध्र ुवं नित्यमहिंसकस्य ।' अहिंसक के लिए शाश्वत मोक्ष की प्राप्ति निश्चित है ।
अहिंसामृत के पान से अमर बनने का एक रहस्य यह भी है कि मनुष्य जब रक्षा, दया, करुणा, सेवा, क्षमा एवं सहानुभूति के विधेयात्मक रूप में तथा किसी जीव को न मारने, न पीटने न सताने, और न पीड़ा देने के निषेधात्मक अर्थ में जब अहिंसा का आचरण करता है उस समय शुभभावों के कारण वह देवगति का आयुष्य बन्ध करके देव बन सकता है, अपने पुण्य पुंज से वह देवलोक में जा सकता है । देवलोक का देव अमर कहलाता ही है । इस प्रकार अहिंसा के पालन से मानव अमर बन जाता है ।
इसीलिए शंकराचार्य रचित प्रश्नोत्तरी में भी कहा हैका स्वर्गदा प्राणभृताम् ? अहसा प्राणधारियों को स्वर्ग प्रदायिनी कौन है ? अहिंसा ।
इसके अतिरिक्त अहिंसा के पालन से व्यक्ति इस लोक में भी अमरोपम - देवतुल्य बन जाता है । उसमें दया, क्षमा, शील, सन्तोष, करुणा, वात्सल्य, सेवा, सहानुभूति, मानवता आदि दिव्य देवी गुण आ जाते हैं, वह देवी सम्पदा का धनी बन जाता है, मतलब यह है कि उच्चकोटि के देवों में जो दिव्यत्व होता है, वही मनुष्य लोक में अहिंसा अमृत का पान करनेवाले मनुष्यों में आ जाता है, अमरत्व इसीलोक में जीते जी प्राप्त हो जाता है। और फिर देवों को जो दिव्य रूप, आरोग्य, दीर्घ आयु तथा प्रशंसनीयता प्राप्त होती है, वह सब अहिंसक मनुष्यों को इसी लोक में प्राप्त हो जाती है । जैसाकि योगशास्त्र ( २ / ५२ ) में कहा है
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