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________________ ३३२ आनन्द प्रवचन : भाग ८ कहा- देव - शिरोमणि ! आप कृपा करके इस विष को पी जाइए और हमें कृतार्थ कीजिए ।" शंकरजी ने कहा - "अभी तो मैं इसे पी जाऊंगा, परन्तु यह याद रखिए, भविष्य में अमृत भी उसी के पास टिकेगा, जो जहर को पचा लेगा । जिसमें विष पीने की शक्ति होगी, वही अमृत को सुरक्षित रखकर उसका लाभ उठा सकेगा ।" पुराणों में रूपक की शैली में इसका वर्णन है । परन्तु उसका रहस्य यही है कि जो व्यक्ति क्रोध, अभिमान, लोभ, छलकपट, मोह, द्रोह, द्वेष, वैर विरोध, घृणा, ईर्ष्या आदि विषों को शान्तभाव से -- समभाव से पी जाएगा, वही अहिंसा और प्रेम का अमृत प्राप्त कर सकेगा । उसे सबका प्रेम मिलेगा, उसके हृदय में दया, क्षमा, सन्तोष, सरलता आदि अहिंसा के गुणों का अमृत लहराता रहेगा । 1 यही कारण है कि शंकरजी ने विष को शान्तभाव से पी लिया, किन्तु उसे न तो अन्दर उतरने दिया और न ही बाहर रहने दिया । कण्ठ में ही रख लिया । इसी कारण उनका नाम 'नीलकण्ठ महादेव' पड़ गया। शंकरजी क्रोधादि विष को पीकर हजम कर सके, इसी कारण वे 'शिव-शंकर' तथा 'महादेव' बने और समस्त देवी देवों को अमृत पान करा सके । शंकरजी के चित्र में आपने देखा होगा कि उनके गले के चारों ओर विषधर सर्प लिपटे रहते हैं कि वे सर्प उन्हें कुछ भी हानि नहीं पहुँचा सकते, क्योंकि उन सर्पों का विष अमृत से भरे महादेव पर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकता | इसका भी रहस्य यही है कि सांगोपांग अहिंसा का अमृत जिसके पास हो, वह चाहे विरोधियों के बीच में रहता हो, शत्रुरूपी विषधर उसको चारों ओर से घेरे रहते हों, उसकी निन्दा, बदनामी और विरोध करते हों, फिर भी उन विरोधी विषधरों के विष उगलने का उस पर कोई असर नहीं होता । वह विरोधियों और शत्रुओं को भी भगवान महावीर की तरह शान्तभाव से उनके द्वेष- रोषादि सहकर उन्हें अपनी अहिंसा का अमृत बाँटता चला जाता है । इसलिए देवों ने जैसे अमृतपान कर लिया, वैसे मनुष्य भी अमृतपान कर सकते हैं, बशर्ते कि उनमें क्रोधादि विषों को पीकर हजम करने की शक्ति हो, अपनी निन्दा, घृणा, विरोध या बदनामी को शान्त भाव से समभावपूर्वक सहन करने की सामर्थ्य हो और तभी अमृत से ओतप्रोत वह मनुष्य विरोधियों, पतितों, दुःखितों' पीड़ितों, शत्रुओं, एवं निन्दकों को अपना बनाकर उनके जीवन में व्याप्त विषों को निकाल सकेगा, उनमें भी अमृतत्व भर सकेगा । अपना अमृत उन्हें भी बाँट सकेगा । वह अमृत क्या है ? प्रश्न होता है कि अमृत के विषय में भारतीय विद्वानों की यह कल्पना रही है कि उसके पीने से प्राणी अमर हो जाता है । देवताओं ने अमृतपान किया, इसलिए वे 'अमर' कहलाये तो क्या इस अमृत के पीने से मनुष्य भी वैसा अमर हो सकता है ? इसके उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि देवतागण जिस अमृत का पान करते हैं, उससे वे 'अमर' अवश्य कहलाते हैं, लेकिन वे भी अपनी आयु पूर्ण होने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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