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________________ १७ अहिंसा : अमृत की सरिता धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज मैं आपको ऐसे जीवन की परख देना चाहता हूँ, जो अमृत से लबालव भरा हो ! ऐसा अमृतमय जीवन किस तत्त्व को अपनाने से होता है ? यह भी गौतम ऋषि ने बता दिया है । यह गौतमकुलक का १६ वाँ जीवन सूत्र है, जिस पर आज मैं विवेचन करना चाहूँगा ! यह जीवन सूत्र इस प्रकार है अमयं ? अहिंसा अमृत क्या है ? इसके उत्तर में कहा गया --' - "अहिंसा" अर्थात् - जिस जीवन में अहिंसा है, वह जीवन अमृतमय बन जाता है । अहिंसा से ओतप्रोत जीवन ही अमृतमय है । उस जीवन में अमृत की पवित्र सरिता बहती है, जिसमें अहिंसा देवी का निवास है । अहिंसा धर्मी का कण-कण अमृतमय बन जाता है। उसके मन, वचन, काया में अमृत आ बसता है । अमृत : मनुष्यों को भी सुप्राप्य 'अमृत' नाम सुनकर आप चौंक गए होंगे कि यह अमृत भला हम मर्त्यलोक के प्राणियों - मनुष्यों के भाग्य में कहाँ पड़ा है ? यह तो देवों के भाग्य की वस्तु है; देवों को प्राप्त होती है । परन्तु आप सच मानिए, यह अमृत जिसका जिक्र इस जीवन सूत्र में किया गया है, मनुष्य भी प्राप्त कर सकते हैं । देवों को भी अमृत यों ही नहीं प्राप्त हो गया । उन्हें भी अपने भव्य और दिव्य पुरुषार्थ के कारण अमृत प्राप्त हुआ है । पुराणों में बताया गया है कि जब देवी देवता अमृत की खोज में भटकने लगे, तब उन्हें पता चला कि अमृत तो समुद्र में है । तब समुद्र को मथने का निश्चय हुआ । कहते हैं, जब देव समुद्र मंथन करने लगे तो सबसे पहले अमृत नहीं, हलाहल विष निकला | देवी देव चिन्ता में पड़ गए कि इस विष का क्या करें ? किसी ने कहा" विष पी जाने पर ही अमृत मिलेगा । अमृत पीने वाले को पहले विष पीना पड़ता है ।" पर विष कौन पीए ? जो पीएगा वहीं समाप्त हो जायगा, फिर अमृत उसके क्या काम आयेगा ? सब ने क्रमशः इन्द्र, विष्णु आदि शक्तिशाली देव-नेताओं से कहा कि आप इसे पी लीजिए | परन्तु उन्होंने अपनी असमर्थता बताई, तब सबने शंकरजी से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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