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________________ २० आनन्द प्रवचन : भाग ८ कान भी सदा धन की ओर लगे रहते हैं। जब भी कानों में रुपयों की झंकार सुनाई देती है कि अमुक जगह प्रचुर धन मिलने वाला है, तब वह उस जगह दौड़ कर या तेज से तेज सवारी से पहुँच जाएगा, भले ही धन से बढ़कर आत्मज्ञान, उसकी सुखशान्ति के लिए आत्म-बोध और कहीं मिलता हो, वहाँ सुनने नहीं जाएगा। उसकी जबान पर भी धन की ही रट रहेगी। एक कवि ने लोभी के मुख से होने वाली धन की रटन को दुन्दुभि के रटन की उपमा दी है "दुन्दुभिस्तु सुतरामचेतनस्तन्मुखादपि धनं धनं धनम् ॥ इत्थमेव निनदः प्रवर्तते, किंपुनर्यदि जनः सचेतनः ॥" दुन्दुभि तो वास्तव में अचेतन है, फिर भी उसके मुख से भी जब धनं धनं धनं आवाज निकलती रहती है, तब फिर सचेतन मानव (लोभी) यदि हाय धन, हाय धन की रट लगाता है तो इसमें आश्चर्य क्या है ? लोभी व्यक्ति के मुंह पर सदा धन शब्द कैसे चढ़ा रहता है ? इसे एक रोचक दृष्टान्त द्वारा समझिए एक सेठ जी थे। अत्यन्त लोभी। वे लोभ के वश अपने वयस्क लड़कों को भी अपनी दुकान की केसबॉक्स (गल्ला) नहीं सौंपते थे । ब्याज बट्टे का धन्धा करते थे और दूकान भी थी उसमें उधार बहुत चलती थी। एक बार सेठजी अत्यन्त बीमार होने पर मरणशय्या पर पड़े थे। मन में दूकान के उन्हीं ग्राहकों के नाम की रटन थी, जिनसे रुपये लेने थे। पिता का अन्तिम समय निकट देखकर पुत्रों ने सोचा; अगर पिताजी को अन्तिम समय में राम का नाम याद दिलाया जाय और ये उसे रटें तो इनकी गति सुधर जाएगी। अतः बड़े पुत्र ने कहा-"पिताजी ! जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं है, राम का नाम लीजिए।" सेठजी तपाक से बोले-"अच्छा याद दिलाया, बेटा ! देखना रामू चौधरी से ३०० रुपये लेने हैं। छह महीने से उसने एक भी पैसा नहीं दिया। उससे ब्याज सहित रकम वसूल कर लेना।" पुत्रों ने देखा-यह तो उलटा काम हुआ ! इन्हें राम के बदले रामू ग्राहक का नाम याद आगया। अतः छोटे लड़के ने उनसे 'भगवान्' का नाम लेने को कहा। मगर भगवान् का नाम जिह्वा से कैसे लिया जाता ? उस पर तो जिनसे धन लेना था, उन ग्राहकों के नाम चढ़े हुए थे । अतः सेठजी बोले-बेटा ! उस भगवानदास पण्डित से तकादा करके रुपये वसूल करना। वास्तव में लोभी की हर प्रवृत्ति धन के लाभ को लेकर होती है। उसका दिल-दिमाग भी हर समय धन की ही उधेड़बुन में लगा रहता है । प्रसिद्ध पाश्चात्य निबन्धकार बेकन (Bacon) ने लिखा है “The covetous man cannot so properly be said to possess wealth, as that may be said to possess him." 'लोभी मनुष्य ठीक तरह से यह नहीं कह सकता कि धन उसके अधिकार में है, जैसा कि धन यह कह सकता है कि वह (लोभी) उसके अधिकार में है।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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