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________________ लोभी होते अर्थपरायण २१ धन जब मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर सवार हो जाता है तो धन पर आधिपत्य जमाने के बजाय धन उस पर आधिपत्य जमा लेता है। आप जानते हैं कि घोड़ा, रथ, कार, रिक्शा आदि सवारियों पर सवार होकर मनुष्य आराम से अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाता है, परन्तु ये ही सवारियाँ अगर मनुष्य के सिर पर सवार हो जाय तो बड़ी हास्यास्पद और विचित्र स्थिति हो जाती है, उस मनुष्य की। सम्भव है, वह दुर्घटनाग्रस्त हो जाय या उसके हाथ-पैर टूट जायें अथवा जान पर ही आ बने । यही हाल उन लोभी मनुष्यों का हो जाता है, जिनके मन-मस्तिष्क पर धन सवार रहता है। ___ एक ठेकेदार साहब थे। बहुत बड़ी ठेकेदारी का काम था उनका। उनके मन-मस्तिष्क पर हरदम अधिक लाभ के ठेके की धुन सवार रहती थी। धन उन पर इतना अधिक हावी हो चुका था कि बात-बात में उनके मुंह से वे ही ठेकेदारो सम्बन्धी लाभ के शब्द निकल पड़ते थे, चाहे बातचीत का विषय पारिवारिक या सामाजिक ही क्यों न हो। उनका एक पुत्र था, जो विवाहयोग्य हो चुका था। अनेक कन्या वाले अपनी-अपनी कन्या से उनके पुत्र की सगाई के लिए आने लगे । ठेकेदार साहब के परिवार के लोग, मित्र एवं सम्बन्धी भी लड़के का सम्बन्ध तय कर लेने पर जोर देते रहते थे; परन्तु ठेकेदार साहव धन की टोह में रहते थे, इस कारण एक या दूसरे बहाने से टालते रहते थे। एक दिन वे अपने मित्रों के बीच बैठे थे कि सबने पुत्र का सम्बन्ध करने के लिए उन पर दवाब डाला और पूछा-"आखिर आप अपने लड़के का सम्बन्ध क्यों नहीं करते हैं; जबकि इतने लड़की वाले बार-बार आपके द्वार पर आते हैं ? आखिर क्या इच्छा है आपकी ?" ठेकेदार साहब सहसा बोल उठे"भाई ! पुत्र का विवाह तो करना ही है। जिसका टेंडर ऊँचा होगा, उसी के साथ सम्बन्ध कर लेंगे।" यह सुनते ही मित्रों के मुख से हँसी का फव्वारा छूटा । ठेकेदार साहब को भी अपनी भूल मालूम हुई, वे एकदम झेंप गए और भूल सुधारते हुए बोले-"अफसोस ! मेरे मुंह से गलती से टेंडर शब्द निकल गया। वास्तव में मेरा अभिप्राय था-अच्छा कुल, उच्च संस्कार और उच्च आचार-विचार !" लेकिन अब क्या होता ? उन्हें हास्य का पात्र तो बनना ही पड़ा। वस्तुतः ठेकेदारजी के मनमस्तिष्क पर अपना व्यवसाय और धन का लाभ पूरी तरह से छाये हुए थे। इसीलिए विवाह सम्बन्ध की बात में भी पर्याप्त धन लाभ का सूचक व्यवसायिक 'टेंडर' शब्द उनके मुख से निकल गया था। हाँ, तो मैं कहता था कि लोभी मनुष्य धन के मोह में इतने पागल हो जाते हैं कि धन के सिवाय संसार में उन्हें कुछ दिखता ही नहीं। रात-दिन धन ही धन उनके हृदय में बसा रहता है । वह लॉटरी का टिकट खरीद कर एक ही रात में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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