SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ ने पूनः एक को या दोनों को उकसा कर क्रोधित किया और लड़ाया, यह चंचल बंदर को मदिरा पिलाने के समान महान् अनर्थकर है। सूत्र कृतांग सूत्र (श्रु० १, अ० ४, उ० १) में शान्त क्रोध को पुनः उत्तेजित करने के परिणाम के विषय में बताया है जे कोहणे होइ जगट्ठभासी विओसियं जे उ उद्दीरएज्जा। अन्धे व से दंडपहं गहाय अविओसिए घासति पावकम्मे । जो क्रोध विष के भयंकर परिणाम से अनभिज्ञ पुरुष दोषयुक्त कठोर बोलता है; जैसे ब्राह्मण को 'डोड' कहना, बनिये को किराउ, श्वपाक को चाण्डाल कहना, काने को काना, कुबड़े को कुबड़ा कहना आदि तथा विविध प्रकार से उपशान्त द्वन्द्व, कलह या क्रोध को जो पुनः उदीरणा करके जगाता है, वह पापकर्मी पुरुष, अनुपशान्त (क्रोधादि को उपशान्त किये बिना) होकर उसी तरह चतुर्गति संसार में भटकता रहता है, जैसे अन्धा जंगल की पगडन्डी पकड़ कर अच्छी तरह से न जानने के कारण रास्ते में कांटे, एवं सिंह आदि हिंस्रपशुओं से पीड़ित होकर भटकता रहता है। क्रोधरूपी विष को आते ही रोक दो पिछले २५ वर्षों में विज्ञान ने बहुत शोध की है। उनमें से एक शोध है-सूक्ष्म कीटाणुओं को देखने की। रोग के विषेले कीटाणुओं को सूक्ष्मवीक्षण यंत्र (दूरबीन) से देखकर उन कीटाणुओं से बचने या उन्हें शीघ्र हटाने का प्रयत्न किया जाता है, ताकि क्षय (टी. बी.), कैंसर आदि भयंकर रोग आगे न बढ़ सकें, वहीं दब जाएँ। इसीप्रकार आपको भी मन, वचन और काया में प्रविष्ट क्रोध के विषैले कीटाणुओं को पहले सूक्ष्म आत्म-निरीक्षण से देखकर आगे बढ़ने से रोकना है, उन क्रोध के विषाक्त कीटाणुओं से अपने आपको बचाना है। अगर आप जीवन में प्रविष्ट होने वाले क्रोध के विषाक्त कीटाणुओं को रोकेंगे नहीं या दबाएँगे नहीं तो वे आत्मा को अस्वस्थ एवं अशुद्ध बनाकर आपको जन्म-जन्मान्तर में बार-बार हैरान करेंगे। एक जगह जंगल में दो मित्र बैठे हुए थे। अचानक एक सांप आया, उसने दोनों के अंगूठे में काट खाया। उनमें से एक मित्र ने सोचा कि अगर मैं इस अंगूठे को काट डालूंगा तो यह विष आगे बढ़ने से रुक जाएगा, आगे नहीं फैलेगा और मैं बच जाऊँगा।" यह सोच कर उसने चट से अपना अंगूठा जहाँ सांप ने काटा था, काट डाला और उस पर पट्टी बाँध दी। दूसरे मित्र ने सोचा-"अंगूठे का क्या काटना ! सांप ने केवल अंगूठा ही तो काटा है ! यह अभी ठीक हो जाएगा।' यह सोच कर वह बैठा रहा । उसने अंगूठा काटा नहीं। नतीजा यह हुआ कि थोड़ी देर में जहर चढ़ा और सारे शरीर में फैल गया। विष के फैलते ही वह मर गया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy