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________________ ३२० आनन्द प्रवचन : भाग ८ "जब हो जाता मनुज पर क्रोध-भूत असवार । आँख बन्द होती तुरत, खुलता मुख का द्वार ॥" अपेक्षित है, मानव अपना मुख द्वार खोलने के साथ-साथ विवेक की आँख खुली रखे। पर देखा है कि बहुधा मनुष्य इस मामले में समझदारी से काम नहीं लेता । वह उतावला और क्रुद्ध होकर वाणी से विषवृष्टि करता रहता है । एक महानगरी में एक धनिक रहता था । उसने अपनी विशाल कोठी इस नगरी में बनवाली थी । एक दिन वह एक सन्त को अपनी कोठी दिखला कर प्रशंसा पाने की उत्सुकता से ले गया । सन्त को घुमा घुमाकर सारी कोठी दिखलाई । अलगअलग कमरों पर लगी तख्तियों पर लिखा था - स्नानघर, शयनघर, आदि । इतने में उसने देखा कि नौकर एक बच्चे को बरामदे में स्नान करवा रहा है । बस, यह देखते ही उनका पारा गर्म हो गया । गुस्से में आकर गालियों के उपहार के साथ नौकर को लगे डांटने - अरे पागल ! मूर्ख, बुद्ध, अन्धा कहीं का ! बरामदे में स्नान करवा रहा है, यह स्नानघर किसलिए बनवाया है ?" यों काफी देर तक वे अन्टसन्ट बकते रहें । सन्त ने चलते समय उसकी दुर्वासा -सी प्रकृति को लक्ष्य करके कहा" सेठ जी ! और तो बहुत-से घर बनवा लिये, एक 'लड़ाई घर' रख दिया ?" बनवाना क्यों बाकी वे समझ तो गए, परन्तु अपनी क्रोध विष से भरी कटु वाणी को छोड़ सके या नहीं ? यह कहा नहीं जा सकता । वाणी में जब क्रोध रूपी विष भर जाता है, तब उसका असर दिल-दिमाग पर भी पड़ता है । तथागत बुद्ध का यह वाक्य विचारणीय है - "स्वच्छ पानी का बर्तन जब गर्म हो जाता है, तब उस पानी से भाप निकलने लगती है और वह खौलने लगता है । उस समय खौलते हुए पानी में अपना प्रतिबिम्ब नहीं देखा जा सकता । उसी प्रकार जब मनुष्य क्रोधाभिभूत होता है, तब उसकी समझ में नहीं आता कि उसका आत्महित किस में है ?" चेष्टा या कृति में क्रोध विष तो और भी भयंकर वाणी से आगे बढ़कर क्रोध रूपी विष जब मनुष्य की कृति या चेष्टा में प्रविष्ट हो जाता है, तब तो वह और भी भयंकर हो जाता है । उसके कारण वह नीच गति में और नीच योनि में जन्म लेता है । अगर वहाँ भी उसका विवेक नहीं जागता है तो वह क्रूर क्रूरतर प्राणी की योनि में जन्म लेता रहता है, वहाँ स्वयं भी कष्ट पाता है औरों को भी कष्ट देता है । - आप जानते ही हैं कि चण्डकौशिक सर्प कैसे बना था । चण्डकौशिक में विष कहाँ से और किस कारण से आया था ? विष का स्रोत तो वह क्रोध ही था, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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