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क्रोध से बढ़कर विष नहीं ? ३१६ भी पर कहाँ तक सम्भलते ? गुरु की ओर से गालियाँ, कटुवचन और प्रहार सहते-सहते हद हो गई ! कई बार तो गुरु का क्रोध सीमा पार कर जाता। वे तुरन्त चिल्लातेअरे दुष्ट ! तुझे दिखाई भी नहीं देता ! अभी तो मार दिया होता मुझे ।' परन्तु मुनि सोम तो मानो साक्षात् सहनशीलता और नम्रता का आगार बन गये थे। सिर फट गया । सारा शरीर खून से लथपथ हो गया, फिर भी अपनी कोई चिन्ता नहीं। निःस्वार्थ भाव से चल रहे थे । समता उनके रोम-रोम में रम गई थी। इसीलिए रहरहकर उन्हें मन में वेदना होती कि सम्भल न सकने के कारण गुरुदेव को इतना कष्ट हुआ । जब गुरु अकुलाते तो वह सहानुभूतिपूर्ण शब्दों में कहते- "गुरुदेव ! आप मुझे ठीक दण्ड दे रहे हैं । मैं कैसा अभागा हूँ कि आपको सुविधापूर्वक भी नहीं ले जा सका।" यों समभाव से गुरुदेव के चण्ड स्वभाव और प्रहार को सहने के कारण सोम मुनि को केवलज्ञान का प्रकाश हो गया। अब उनके पैर सम्भल-सम्भल कर पड़ने लगे । गुरुदेव ने कहा-"अब इतनी मार खाकर आया है ठिकाने ! पहले ही ऐसे चलता तो मुझे इतना कष्ट तो न होता ।"
"गुरुदेव ! आपकी कृपा से मैं अब ठीक सम्भल कर चल रहा हूँ।" सोम मुनि के इस कथन पर आचार्य चण्डरुद्र विचार में पड़े गये। उन्होंने उनके सिर पर हाथ फिराकर देखा तो गर्म रक्त निकल रहा है। फिर भी इतनी सहनशीलता ! आचार्य ने पूछा-"सोम ! क्या तुझे कोई ज्ञान हो गया है ?"
"गुरुदेव ! आपकी कृपा है।" सोम मुनि ने कहा ।
"क्या केवलज्ञान हो गया है या और कोई ज्ञान ?" गुरु ने पूछा । "गुरुदेव ! आपकी कृपा हो, फिर कमी क्या रह सकती है ?'' गुरुदेव एकदम चौंके और शिष्य को रोक कर कंधे से नीचे उतरे। आचार्य चण्डरुद्र को एकदम पश्चात्ताप हुआ, वे करुण स्वर में कहने लगे-"वत्स ! मैंने तुम्हें कितना कष्ट दे दिया । तुम्हें तो समभाव से कष्ट सहने के कारण केवलज्ञान हो गया। पर मैं वाणी से क्रोधविष उगलने के कारण पाप से भारी हो गया । मैंने घोर पाप कर्मों के बन्धन कर लिये । न मालूम ये कितने जन्मों में छुटेंगे। वत्स ! धिक्कार है मुझ पापी को कि अपने सहनशील, विनयी शिष्य को भी कष्ट देने से न चुका। मुझे क्षमा कर दो तात ! जो पाठ मैं आचार्य होकर भी न सीख सका था, वह आज तुमने मुझे सिखा दिया। अब मैं जीवन भर कभी क्रोध न करूँगा।"
वाणी में क्रोध के विष को बसा लेने से आचार्य चण्डरुद्र स्वयं तो पाप कर्मों से भारी हुए ही, पर दूसरों को कष्ट में डाल कर कितना आघात पहुँचाया। यही कारण है कि सोममुनि से पहले के कोई साधु उनके पास टिक न सके । बल्कि उनके मन में आचार्य के कटु शब्दों की भयंकर प्रतिक्रिया भी हुई होगी।
इस प्रकार मनुष्य वाणी द्वारा अमृत बरसाने के बजाय क्रोधविष बरसाता है। इसीलिए एक कवि कहता है
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