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________________ ३१८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ . ने मुंह खोला, एक अन्य साथी ने आगे बढ़कर पहली बात की पुष्टि कर दी । युवों की चख-चख से क्रोधी चन्डरुद्र आचार्य का स्वभाव एकदम उग्र हो उठा। उन्होंने कहा-'अच्छा, ऐसी बात है, तो ले इसे मूंडता हूँ।" यों कह कर चट से सोम का मस्तक मूंड डाला और बना दिया उसे साधु । बात हँसी की थी, परन्तु अनियन्त्रित और अति होने के कारण तूल पकड़ गई। चण्डरुद्र का क्रोधी स्वभाव देखकर अन्य साथी तो वहाँ से खिसक गये, सोम बेचारा फंस गया। उसने लज्जावश लिए हुए साधु के बाने को अपने लिए कल्याणकारी समझ कर सन्तोष माना और साधुत्व की साधना करने में जुट पड़ा। दशविध श्रमणधर्म के सिद्धान्त उसने पहले ही पढ़ लिये थे अब तो उनका पालन करना था। परन्तु उसकी साधना में विघ्न न हो, इसके लिए उन्होंने गुरु से सविनय निवेदन किया-गुरुदेव ! जो कुछ हुआ सो हुआ, मैंने साधुत्व स्वीकार कर लिया। अब यहाँ रहना ठीक न होगा । क्योंकि मेरे परिवार के लोग, जब इस अप्रत्याशित घटना को सुनेंगे तो वे क्रुद्ध होंगे । सम्भव है, प्रतिकार के लिए वे आयें और आपको भी दण्ड देने से न चूकें। आप मेरे गुरु हैं । आपकी रक्षा करना मेरा परम कर्तव्य है। इसलिए अब यह स्थान बदल लेने में ही अपना हित है।" गुरु बोले-"तुझे दीक्षा देने से ही मुझे भयंकर कष्ट उठाने पड़ेंगे । बात तो तेरी ठीक है कि यहाँ से चलकर कहीं और जगह जाना चाहिए। पर बता मेरा वृद्ध शरीर है, फिर रात्रि का अंधेरा बढ़ता जा रहा है। शरीर में चलने की ताकत प्रायः समाप्त हो चली है, फिर रात के अंधेरे में चलना तो मेरे लिए और भी कठिन है।" ___सोम विनीतभाव से बोला- "गुरुदेव ! आप उसकी चिन्ता न करें। मैं आपको अपने कन्धों पर बिठा लूंगा । अभी तो मैं युवक हूँ।" युवक साधक सोम गुरु के इंगित की प्रतीक्षा में था।" चण्डरुद्र क्रोधी तो थे ही। क्रोधी व्यक्ति दूसरे के स्वार्थ, हित या जीवन को नहीं देखता । वह बात-बात में उग्र हो जाता है। उन्होंने तपाक से कहा-तू मुझे दुःख देकर ही रहेगा। चल तेरी इच्छा है तो मुझे अपने कन्धों पर बिठा ले, किन्तु जहाँ तूने चलने की जरा भी गड़बड़ की तो मैं सहन नहीं करूँगा।" युवक सोम मुनि ने गुरु के कथन को सविनय स्वीकार किया। अपने कन्धों पर गुरु को बिठाया और वहाँ से चल पड़ा। गहन, गह्वर वन-टीले, पहाड़ आदि पार करते हुए सोम मुनि आगे बढ़ रहे थे, किन्तु सोम मुनि का पैर अंधेरे में ऊबड़-खाबड़ जगह में पड़ते कि चण्डरुद्र उसकी खोपड़ी पर मुट्टी से प्रहार करते । आधी रात बीती, नींद के झौं के युवक मुनि को आने लगे, फिर ऊबड़-खाबड़ जगह में पैर पड़ते कि गुरु गुस्से में आकर कहते- "दुष्ट ! मुझे मार ही डालेगा क्या आज ? बुद्ध ! मुझे दुःख देने को लाया ही क्यों था।" ऊबड़-खाबड़ रास्ते में चलने से सोममुनि के पैर छिद गये थे। उनमें से खून रिसने लगा था, फिर गुरु का क्रोधी स्वभाव ! सारी शक्ति लगा कर वे संभले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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