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________________ क्रोध से बढ़कर विष नहीं ? ३१७ वचन से भी क्रोधविष उगलता है इसी प्रकार वचन में भी क्रोधविष व्याप्त हो जाता है, तब मनुष्य अपना आपा भूल जाता है । क्रोध मिश्रित वचन कितने मर्मान्तक, कटु, उग्र और असत्य होते हैं, उससे कितना अनर्थ हो जाता है, स्व-पर की कितनी हानि और बैर-विरोध की परम्परा बढ़ती है, यह तो भारतीय इतिहास को उठाकर देखने से आप स्वयं जान जाएँगे। रहीम कवि का भी यही कहना है "अमृत ऐसे वचन में, रहिमन रिस को गांस। जैसे मिसरिहु में मिली, निरस बांस की फांस ॥" जिसके मुखकमल से वाणी का अमृत रस झरने के बदले क्रोध का विष उगला जाता हो, समझ लो, वहाँ वचन में क्रोध का बिष घोलकर नरक में जाने की तैयारी कर ली। पातंजल महाभाष्य में ठीक कहा है "एकः शब्दः सुष्ठ प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुक भवति ।" एक शब्द का यदि विवेकपूर्वक हित बुद्धि से प्रेम और शान्ति के साथ प्रयोग किया गया है तो वह स्वर्ग लोक की ओर ले जाता है, इस लोक में आपके लिए वह वाणी कामदुहाधेनु-सी हो रही है, आपके जीवन में सोई हुई विराट चेतना को जगा रही है। किन्तु इसके विपरीत यदि आप अपशब्द, कटु शब्द एवं मर्मस्पर्शी वचन बोलते हैं, दूसरों को लड़ने के लिए आप उकसाते हैं, या वाणी से काँटा चुभोते हैं, आग लगा देने वाले वचन बोल रहे हैं, तो समझ लीजिए वह वचन आपको नरक की ओर ले जा रहा है। ऐसे शब्द आपके मुंह को भी गन्दा करते हैं, दूसरों में भी उसकी भयंकर प्रतिक्रिया जगाते हैं। क्रोध युक्त कठोर मर्मस्पर्शी एवं कटुवाणी विष का काम करती है । वाणी मिली थी आप को अमृतरस बरसाने के लिए, लेकिन आप वाणी में क्रोध मिलाकर बरसाने लगे हलाहल विष ! हम देखते हैं कि कई परिवारों में जरा-जरा बात पर क्रोध से आँखें लाल हो जाती हैं, भौंहे तन जाती हैं, और फिर शस्त्रों से आपस में लड़ाई भी ठन जाती है । इस विष को खाने पर तो मनुष्य केवल इसी जन्म में थोड़ीसी देर में खत्म हो जाता है। परन्तु क्रोध रूपी विष को मन में-दिमाग में प्रविष्ट कराने पर, वचन द्वारा उसे उगलने पर तथा काया की चेष्टाओं द्वारा उस विष को कार्यरूप में परिणत करने पर तो एक जन्म नहीं, अनेक जन्मों तक मनुष्य को उसी गति और योनि में भटकना पड़ता है । युवक सोम नवपरिणीत था और अपनी पत्नी को लेने के लिए ससुराल आया हुआ था । किन्तु उसको मुनि दर्शन का नियम था, इसलिए गाँव में विराजित आचार्य चण्डरुद्र के पास अपने साले के साथ वह आया। साले ने आचार्य के सामने दो-तीन बार मजाक में सोम की ओर इशारा करके कहा- "गुरुदेव ! इनको संसार से विरक्ति हो गई है । इन्हें मूंड लीजिए।" सोम ने चाहा कि वह इस बात से इन्कार करदे, कि यह सब मेरा उपहास कर रहे हैं, किन्तु वास्तविक बात कहने के लिए ज्यों ही सोम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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