SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द प्रवचन : भाग ८ कोमलता का भाव न मन में। फिर क्या सुन्दरता से तन में । जीवन विष बरसाए ! दया बिन बावरिया, हीरा जन्म गंवाए। सचमुच मनुष्य के मन में अमृत का भण्डार होते हुए भी वह क्रोध को अपनाकर दूसरों के प्रति विष बरसाता है। यह विष जब दिमाग में चढ़ जाता है, तब सेक्सपीयर के शब्दों में यह बहरा बन जाता है । वह कहते हैं "In rage deaf as the sea, hasty as fire." 'गुस्से में मनुष्य समुद्र की तरह बहरा और आग की तरह जल्दबाज बन जाता है।' मन में क्रोधरूपी विष को घोल लेने की अपेक्षा अगर मनुष्य अहिंसा, दया, सहानुभूति, धैर्य आदि अमृत तत्त्वों को अपनाए तो कितना अच्छा हो ? किन्तु क्रोधरूपी जहर से दोस्ती करके वह उतावली में अपना सर्वनाश बुला लेता है । पालक ने जरा से वादविवाद में पराजय के अपमान को लेकर ही इतना बड़ा कोपकाण्ड कर दिया । दण्डक उसके बहकावे में आकर क्रोधविष के वशीभूत हुआ और मुनियों की हत्या का भागी बना और वर्षों पुराने साधक स्कन्दकाचार्य ने भी क्रोधावेश में आकर निदान करके अपना संयमी जीवन खो दिया, किनारे लगी हुई जीवन नैया पुनः अथाह संसार-सागर में धकेल दी। क्रोध ध्यान करने से भी विष फैलता है - शास्त्र में क्रोधयुक्त ध्यान की बात आती है। वह क्या है ? मन में क्रोध के विषले परमाणुओं को एकत्र करना ही क्रोधरूप रौद्र ध्यान है। क्रोध ध्यान करने वाला पहले मन में दूसरों को अपने क्रोधविष से पीड़ित करने की भूमिका बनाता है, तत्पश्चात् उसे कार्यरूप में परिणत करता है । महाशतक भगवान महावीर के उत्कृष्ट श्रावकों में से एक थे। उनकी एक पत्नी थी रेवती, जो मांसाहारी थी। वह प्रतिदिन गायों के ताजे जन्मे हुए बछड़ों को मरवाकर उनका मांसभक्षण करती थी, उसके इस कृत्य को देखकर उसकी दूसरी धार्मिक और अहिंसक सौतें बहुत खीजती थीं। उसके साथ रोज कहा-सुनी भी होती थी। परन्तु रेवती इतनी ढीठ और जबर्दस्त औरत थी कि उसके सामने सब काँपती थीं। रेवती ने एक दिन क्रोधवश मन में दृढ़ निश्चय कर लिया अपनी ६ सौतों को मार डालने का। फलतः उसने गुप्तरूप से उन्हें जहर देकर मार डाला। रेवती ने अपनी सौतों को विष से मार डालने से पहले अपने मन में क्रोधविष का ध्यान ही तो किया था। ___ इसी प्रकार कूलबालुक, गोशालक, पालक, नमुचि, शिवभूति आदि ने भी क्रोधविष से आविष्ट होकर दूसरों को पीड़ा देने से पहले क्रोध ध्यान ही तो किया था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy