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________________ क्रोध से बढ़कर विष नहीं ? ३१५ शुक्ल ध्यान में लीन होकर अन्तकृत केवलज्ञानी हुए और मोक्ष पहुँचे । अब एक सबसे छोटा शिष्य पीलना रह गया था उसे जब घाणी में पापी पालक पीलने लगा तो स्कन्दकाचार्य से न रहा गया। वे बोले – “ऐ पालक ! पहले मुझे पील, फिर तुम्हारी इच्छा हो वैसे करना ।" परन्तु दुरात्मा पालक नहीं माना । उसने आचार्य के देखते ही देखते लघु शिष्य को घाणी में पील दिया । उसने भी क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ होकर केवलज्ञान पाया और अव्याबाध सुखरूप मुक्ति प्राप्त की । परन्तु पालक के इस घोर दुष्कृत्य को देखकर आचार्य ने सोचा - " इस दुष्टात्मा ने मेरी इतनी-सी बात न मानी ! मेरी आँखों के सामने इस पापी ने कितना घोर अनर्थ कर डाला ? मालूम होता है, केवल पालक ही दुष्ट नहीं, इस नगर का राजा भी दुष्ट है और प्रजा भी महानिर्दयी है ।" यों अत्यन्त क्रोधावेश में आकर आचार्य पालक से कहने लगे - बस पापी ! तेरी दुष्टता की हद हो गयीं। मैं अपने तप के प्रभाव से तुम सबसे इसका बदला लिये बिना नहीं रहूँगा । मैं यह घोर संकल्प पूरा न करूँ तो मेरा नाम स्कन्दकाचार्य नहीं ।" यों कहते-कहते आचार्य के सारे शरीर में, मन के कोने-कोने में क्रोध का विष व्याप्त हो गया, उसी अवस्था में पालक ने उन्हें घाणी में पील दिया । अतः उक्त निदान एवं मन में क्रोधरूपी विष के प्रभाव से विराधक स्कन्दकाचार्य मर कर अग्निकुमार नामक देवरूप में पैदा हुए । उस समय स्कन्दकाचार्य का रक्त लिप्त रजोहरण मांसापिण्ड के भ्रम से कोई पक्षी उठाकर ले उड़ा। संयोगवश उसके मुंह से छूटकर वह रजोहरण राजमहल के आगे गिर गया । रानी पुरंदरयश ( स्कन्दकाचार्य की बहिन ) ने उसे पहचान कर कहा - हो न हो, यह तो मुनि का रजोहरण है। मालूम होता है, राजा ने मुनिहत्या कराई है । लोगों के मुख से भी उसने सारा वृत्तान्त सुना तो कुपित होकर वह राजा के पास आकर कहने लगी ――― " अरे पापात्मा, दुर्नीतिकारक राजन् ! यह आपने क्या दुष्कृत्य कर डाला ? मुनिहत्या ! ! यह तो आपको घोर नरक का मेहमान बनाएगी । साधु हत्या तो महा- अनर्थकारी है । यों बारबार धिक्कार और फटकार कर रानी संसार से विरक्त हो गई। शासनदेवी की सहायता से रानी ने मुनिसुव्रत स्वामी से भागवती दीक्षा अंगीकार की और आत्मकल्याण किया । इधर स्कन्दकाचार्य ने अग्निकुमार देव बनकर अवधिज्ञान से तुरन्त अपने मारनेवाले को जाना और भयंकर रोषावेश में आकर पालक सहित दण्डक राजा तथा उसका राज्य जलाकर भस्म कर दिया । तब से उस प्रदेश का 'दण्डकारण्य' नाम प्रचलित हुआ । इस प्रकार स्कन्दकाचार्य के मन में व्याप्त क्रोध विष ने कितना भयंकर अनर्थ कर डाला । राजा दण्डक और पालक पुरोहित ने भी क्रोधविष को अपनाकर मुनियों की हत्या जैसा जघन्य दुष्कृत्य कर डाला । इसीलिए कवि कहता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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