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________________ ३१४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ रानी एवं दण्डक राजा को प्रतिबोधित करने जाऊँ ।" इस पर प्रभु मौन रहे । जब उन्होंने दूसरी वार पूछा तो प्रभु ने फरमाया-"वहाँ तुम पर प्राणान्त उपसर्ग आएगा। यह सुन कर स्कन्दकाचार्य ने पूछा-"भगवन् ! इस उपसर्ग में मैं आराधक रहूँगा या नहीं ?" प्रभु बोले-तुम्हारे सिवाय सभी शिष्य आराधक होंगे।" स्कन्दकाचार्य बोले-"तो कोई चिन्ता नहीं !" यों कहकर प्रभु को वन्दना करके ५०० अनगारों के सहित स्कन्दकाचार्य कुम्भकारकटक नगर पहुंचे। पालक के मन में स्कन्दकाचार्य के प्रति पहले से क्रोध विष भरा था, अतः ज्यों ही उसने सुना कि स्कन्दकाचार्य आ रहे हैं, उसने साधुओं के ठहरने के स्थान उद्यान में अनेक शस्त्र जमीन में गड़वा दिये । स्कन्दकाचार्य अपने ५०० शिष्यों सहित उसी उद्यान में विराजमान हुए । दण्डक राजा पौरजनों सहित उन्हें वन्दन करने आए। आचार्य ने धर्मोपदेश दिया। उसे सुनकर सभी लोग हर्षित हुए। क्रोधाविष्ट पालक राजा को एकान्त में लेकर कहने लगा--"राजन् ! आपके यह स्कन्दक तो पाखण्डी हैं, आचारभ्रष्ट हैं, इनमें साधुता तो लेशमात्र भी नहीं है। ये ५०० साधु जो इनके साथ आए हैं, ये सहस्रयोधी सुभट हैं। ये आपका राज्य लेने के लिए हैं।" राजा ने उत्सुकतापूर्वक पूछा- "तुमने यह कैसे जाना ?" पालक बोला- "मुझसे क्या छिपा रह सकता है ! मैं यथावसर इनका मायाजाल बताऊँगा।" यों कहकर किसी बहाने से सभी साधुओं को किसी दूसरे उद्यान में ठहराया। फिर जमीन में गाड़े हुए सभी शस्त्र निकालकर पालक ने राजा को बताए । शस्त्र देखते ही राजा को मुनियों पर पक्का शक हो गया। उसने कोपायमान होकर शीघ्र पालक को आज्ञा दी-"मैं इनको यथा योग्य दण्ड देने की सारी जिम्मेवारी तुम्हें सौंपता हूँ। यों कहकर राजा अपने महल में चला गया। तत्पश्चात पालक पुरोहित ने पूर्व द्वेषवश पुरुष पीलने की एक बड़ी घाणी मंगवाई और स्कन्दकाचार्य के शिष्यों को क्रमशः एक-एक करके उस घाणी में डालने लगा। उस समय स्कन्दकाचार्य ने प्रत्येक शिष्य को यही उपदेश दिया-"मुनिवर ! देखना, तुम्हारी साधना की कठोर परीक्षा है। इस समय अजर-अमर अविनाशी आत्मस्वभाव से बिलकुल विचलित न होना, अनित्य परभाव में जरा भी प्रवेश न करना। यह पालक तुम्हारा शत्रु नहीं, अपितु तुम्हारी मुक्ति की साधना में सहायक मित्र मिला है। जिन कर्मों का क्षय चिरकाल के बाद होता, वे कर्म अब अल्पकाल में ही क्षीण हो जाएंगे। इसलिए मृत्यु से बिलकुल डरना मत । धर्म-पालन करते हुए मृत्यु आ जाए इससे बढ़कर शुभ अवसर कौन सा होगा ? मुनिराज तो समाधिमरण चाहते ही हैं। इस वेदना से भी घबराना मत। ऐसी वेदनाएँ तो आत्म-समभावक के बिना अनन्त बार भोगता आया है । अतः समता में स्थिर रहना । धैर्य बिलकुल न खोना। सभी जीव अपने-अपने कृत कर्मों को भोगते हैं। दूसरा तो केवल निमित्त बनता है। अतः एकमात्र शुद्ध आत्मस्वरूप को उपलब्ध करने के लिए शुद्ध ध्यान में लीन रहना।" इस प्रकार के गुरुवचन सुनकर ४६६ मुनिवर तो समस्त कर्मरूपी ईंधन जलाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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