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________________ ३०० आनन्द प्रवचन : भाग ८ परन्तु वत्स ! तू अपनी मक्खियों को क्यों नहीं उड़ाता, जो तेरी आत्मा के रस को चूस रही हैं ?" भक्त ने उत्तेजित होकर कहा-'तुम बकवास क्यों कर रहे हो ? सन्त होकर झूठ बोलते हो ? मुझे कहाँ मक्खियाँ काट रही हैं ?" सन्त ने शान्त स्वर में कहा"वत्स ! तू भूल रहा है । तुझे अज्ञान और मोहवश कामना और इच्छा की मक्खियाँ भिनभिनाती हुई नजर नहीं आतीं। कामना और इच्छा की मक्खियों ने तुझे पहाड़ पर चढ़ाया, भिखमंगा बनाया, इधर-उधर भटकाया, परेशान किया ! सोच, तूने अपनी इच्छाओं और लोभ से प्रेरित होकर कितनी अनारों को और अपने समय को बर्बाद किया ? भाई, याद रख, ये मक्खियाँ तो थोड़ी देर के लिए केवल तन को ही पीड़ा देती हैं, परन्तु अतृप्त इच्छाएँ; ये लालसाओं, मन की आकांक्षाओं और कामनाओं की ये मक्खियाँ तो तेरे हृदय में सदैव डंक चुभोती रहती हैं, तेरी आत्मा को उत्पीड़ित करती रहती हैं। उनके डंक की चुभन कुछ क्षण और कुछ दिन तो क्या अनेक युगों और अनेक भवों तक पीड़ा देती रहती है। अतः लोभ युक्त इच्छाओं और कामनाओं में तो भयंकर कष्ट है । इनसे तुझे बचना चाहिए।" बन्धुओ ! ये इच्छाओं की मक्खियां, लोभ प्रेरित होकर क्या मन को व्यथित और उत्पीडित नहीं कर देतीं ? इसीलिए स्वामी रामतीर्थ ने कहा था-"इच्छा रोग है। समस्त भय और चिन्ता इच्छाओं का परिणाम है । जिस क्षण तुम इच्छाओं से ऊपर उठ जाओगे, इच्छित वस्तु तुम्हारी तलाश करने लगेगी।" इसीलिए भगवान् महावीर ने अनुभव की आंच में तपे हुए ये उद्गार प्रगट किये "इच्छा लोभ न सेविज्जा।" इच्छा एवं लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि इच्छाओं को आते ही मन से खदेड़ देना चाहिए, उन्हें मुंह नहीं लगाना चाहिए। ऐसा करने पर ही लोभ आता रुक सकेगा, अन्यथा, इच्छाओं को पपोलते ही लोभ झटपट प्रविष्ट हो जाएगा। प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक रोशे (Roche foucauld) ने कहा है It is much easier to suppress a first desire than to satis by those that follon." "बाद में उसके पीछे आने वाली उन इच्छाओं को सन्तुष्ट करने के बजाय पहली इच्छा का दमन करना अधिक आसान होता है।" इच्छाओं की पूर्ति भी अपूर्ति से बढ़कर दुःखकर साधारण मनुष्य सोचता है कि अमुक इच्छा की पूर्ति हो गई तो मुझे सुख हो गया, परन्तु वह यह नहीं सोचता कि इच्छाएँ ही पहले तो अपने आप में चिन्ता और दुःख की कारण हैं, और फिर किसी इच्छा की पूर्ति होते ही मनुष्य को अनेक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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