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________________ पाते नरक, लुब्ध लालची २६६ है कि मालूम होता है धन पर उसके आधिपत्य के बजाय धन ही उन पर आधिपत्य जमाए बैठा है ।" लोभका काम ही है कि वह मनुष्य को इच्छाओं की पूर्ति के लिए बार-बार उत्तेजित करता है । वह शैतान की तरह जब मनुष्य के मन में घुस जाता है तो मन पर उसका कब्जा हो जाता है, फिर वह मन को गलत और उच्छृंखल इच्छाओं की पूर्ति के लिए आदेश देता रहता है । वह असंतोष की आग भड़काता रहता है, मानवमन में । लोभ किस प्रकार असन्तोष की आग लगा कर मन को इच्छा की पूर्ति के लिए उकसाता है ? इसके लिए मुझे एक रोचक उदाहरण याद आ रहा है एक पहाड़ पर अनार का बगीचा था। तलहटी से अनार के पेड़ दिखाई दे रहे थे । अनार के फलों से झुकी हुई टहनियाँ भी स्पष्ट दिखाई दे रही थीं । अनारों को देख कर वहाँ घूम रहे एक भक्त के मुंह में पानी भर आया । उसके मन में अनार खाने की प्रबल इच्छा जागी । मन की उद्दाम कामना की पूर्ति के लिए अनार खाने के लोभ ने मन को विवश कर दिया, जिससे घर की ओर बढ़ते हुए कदम पहाड़ पर चढ़ने के लिए बाध्य हो गए। कामना-आकांक्षा को लिए वह पहाड़ पर पहुँचा वहाँ भी पक्की अनारों को देख वह अपने लोभी मन को रोक न सका । बगीचे के संरक्षक के सामने उसने अपनी इच्छा व्यक्त की और उससे अनार खाने की इजाजत मांगी । बगीचे के संरक्षक ने भला आदमी समझ कर उसे अपनी इच्छानुसार अनार खाने की स्वीकृति दी । अब क्या था ! वह बगीचे में घुसा और एक पेड़ पर अच्छी सी पकी अनार देख कर तोड़ी और उसे चाकू से काट कर खाने लगा । पर वह अनार खट्टी थी । इसलिए खा नहीं सका । फिर उसने ४-५ वृक्षों से अनार तोड़ी पर वे सब खट्टी थीं, इसलिए खा न सका, उसकी मनोकामना पूर्ण न हुई । वह परेशान होकर बगीचे में इधर-उधर घूमता रहा। उसे अपनी इच्छानुसार अनार मिल नहीं रही थी, इसलिए हैरान था । उसके चेहरे पर परेशानी स्पष्ट झलक रही थी । उसी बगीचे में एक सन्त एक पेड़ की छाया में ईश्वर भजन में मस्त बैठा था । उसके घाव पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं, उस ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता था । वह तो भक्ति के संगीत में मग्न था । सन्त को देख कर इस आगन्तुक भक्त ने नमस्कार किया और पूछा - 'ये मक्खियाँ आपको काट रही हैं, आप इन्हें उड़ा कर कष्ट मुक्त क्यों नहीं होते ?" सन्त ने इस भक्त को नीचे से चल कर पहाड़ पर बगीचे में कष्ट कर के आते, अनार खाने की लालसावश संरक्षक से अनार पाने की मांग करते और अपनी इच्छानुसार अनार न मिलने से परेशान होकर इधर-उधर भटकते हुए भी देखा था । अतः सन्त ने गम्भीर स्वर में कहा - "मुझे कष्ट क्यों होगा ? मेरा मन तो भक्ति की धारा में बह रहा है । ये मक्खियाँ तो घाव के मवाद को खा रही हैं, मुझे तो नहीं खा रही हैं ? हो सकता है, इससे शरीर को कुछ पीड़ा हो, पर मेरे मन और आत्मा को तो पीड़ा नहीं हो रही । वह तो भक्ति रस में डूब चुके हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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