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________________ २६८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ आज मुझे इस गाड़ी में जोत लो। सुबह मुझे एक ताँबे का सिक्का दे देना, ताकि उससे मैं अपना पेट भर सकूँ।" गाड़ी वाले ने दया लाकर उस बैल को छोड़कर विरक्त को गाड़ी में जोत लिया। रात भर उससे काम लिया। सुबह होते ही उसे एक तांबे का सिक्का देकर छोड़ दिया। रातभर के परिश्रम के कारण विरक्त का शरीर थककर चूर-चूर हो गया था, इसलिए उसे विश्राम की इच्छा हुई। विश्राम से पूर्व उसे मन की इच्छा पूर्ण करनी थी, इसलिए ताँबे के सिक्के के बदले चावल दाल लाया और पेट भरकर भोजन किया। - भोजन के पश्चात् वह मन से कहने लगा-"रे मन ! अगर तू प्रतिदिन ऐसी ही इच्छा करता रहेगा तो इसी प्रकार परिश्रम करना होगा, शरीर भी थककर चूरचूर हो जाएगा, फिर वह तेरे कहे अनुसार भजन आदि नहीं कर सकेगा।" रात भर के परिश्रम से विरक्त के मन को इतना कष्ट हुआ कि भविष्य में उसने कभी ऐसे भोजन की इच्छा नहीं की, जब भी, जैसा भी, जहाँ भी, जो भी, जितना भी भोजन मिल गया, उसी में तृप्त हो गया । असन्तोषी बन कर मन ने फिर कभी शिकायत या मांग नहीं की और न ही कभी भोजन की इच्छा की। यह है, इच्छा को अनिच्छा के अभ्यास से जीतने का एक तरीका। एक पाश्चात्य विचारक Helvetius (हेल्वेटियस) ने भी इस सम्बन्ध में कहा है-"By annihilating the desires, you annihilate the mind." इच्छाओं को शून्य करने के लिए तुम्हें मन को शून्य (खाली) करना चाहिए । इच्छाओं के साथ ही लोभ घुस जाता है . मनुष्य पहले बड़ी-बड़ी इच्छाएँ करता हैं, फिर उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए लोभ को साथ ले लेता है । लोभ बार-बार उन इच्छाओं की पूर्ति के लिए मन को उकसाता है । इस प्रकार मन इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए कमर कसता है और नाना पाप कर्म करने को तैयार हो जाता है। इसलिए अगर इच्छाएँ इच्छा करने तक ही सीमित रहें तो मन से उन्हें खदेड़ा जा सकता है, किन्तु जब वे लोभ को साथ ले लेती हैं तब इच्छाओं के पैर मजबूती से जम जाते हैं। फिर उन्हें उखाड़ना अत्यन्त दुष्कर हो जाता है। एक पाश्चात्य विचारक Pliny (प्लीनी) का इस विषय में स्पष्ट चिन्तन है"The lust of avarice has so totally seized upon mankind that their wealth seems rather to possess them, than they to possess their wealth." "धन-लोभ की लालसा ने मनुष्य जाति को पूर्णतया इस प्रकार जकड़ लिया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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