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________________ पाते नरक, लुब्ध लालची "" 'इच्छा बहुविहा लोये, जाये बद्धो किलिस्सति । तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधति ॥ " संसार में इच्छाएँ अनेक प्रकार की हैं, जिनसे बँध कर जीव बहुत क्लेशदुःख पाता है । इसलिए इच्छा को अनिच्छा से जीत कर ही मनुष्य सुख पाता है । अनिच्छा से इच्छाओं कों कैसे जीता जाये ? यह सवाल आज का नहीं, सनातन है। हर युग का मनुष्य इस पर विचार करता रहा है। भगवान महावीर ने उत्कृष्ट साधकों के लिए बताया २६७ 'इच्छा लोभं न सेविज्जा' " साधक को इच्छा और लोभ का सेवन नहीं करना चाहिए।" गृहस्थ साधकों के लिए उन्होंने 'इच्छापरिणामव्रत' बताया, क्योंकि उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं होती कि वह सारे परिवार को साथ लेकर इच्छाओं पर सर्वथा विजय प्राप्त कर ले । इच्छाएँ जब भी आएँ, तब भी उसे मन को समझाना होगा, मन के विरुद्ध सत्याग्रह भी करना होगा, तभी वह इच्छाओं पर अनिच्छा द्वारा विजय प्राप्त कर सकेगा । एक मुसलमान को सांसारिक पदार्थों से विरक्ति हो गई । उसे सभी वस्तुएँ रखना भाररूप मालूम होने लगा । उसने सोचा कि वस्तुएँ पास में रहेंगी तो फिर इच्छा जगेगी, उनसे उत्कृष्ट वस्तुओं को या उनसे अधिक वस्तुओं को पाने की, इसलिए इन वस्तुओं पर से ही ममत्व छोड़ दिया जाए तो अच्छा है । अतः उसने घर में से बर्तन, कपड़े, गहने आदि सब चीजें बाहर निकाल कर एक जगह ढ़ेर कर दीं। फिर उसने याचकों को बुलाकर उनको वे सब चीजें बाँट दीं। अपने पास उसने फूटी कौड़ी भी न रखी । फिर उसने अपने मन से कहा - "अरे मन ! अब तेरे पास कुछ भी नहीं रहा । अब तू बिलकुल निर्धन और अकिंचन हो गया है। अब तू किसी भी वस्तु की इच्छा मत करना | अगर इच्छा करेगा भी तो वह पूर्ण नहीं होगी। क्योंकि अब न तो एक भी पैसा पास में है और न ही कोई साधन ।" मुस्लिम विरक्त के मन ने स्वीकार कर लिया कि वह अब कोई भी वस्तु नहीं चाहेगा ।" पर मन आखिर मन ही ठहरा, बड़ा चंचल, उतावला और उद्दण्ड ! वह कहाँ तक स्थिर रह सकता था ! जब मुस्लिम को शाम तक भोजन नहीं मिला और वह शाम को नगर के बाहर विश्राम के लिए बैठा तो मन ने इच्छा की — "कहीं से चावल दाल मिलता तो पेट भर लेता ।" परन्तु पास में फूटी कौड़ी भी नहीं थी, इसलिए मन की इच्छा पूरी न हुई । Jain Education International कुछ ही देर बाद एक गाड़ी वाला आया तो उसने उससे पूछा – “एक बैल का एक दिन का किराया तुम्हें कितना देना पड़ता है ?" गाड़ी वाले ने कहा- "तांबे का एक सिक्का देना पड़ता है ।" विरक्त मुस्लिम बोला - "भाई ! इस बैल के बदले For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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