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________________ २६६ आनन्द प्रवचन : भाग ६ के लिए पर्याप्त अवकाश दिया जाए। परन्तु देखा यह जाता है कि मनुष्य विविध प्रकार की इच्छाओं के उच्छखल एवं बेलगाम घोड़ों पर सवार होकर सारा समय, बल, श्रम एवं साधन लगा देता है, इन्हीं की मनमानी करने में । उच्छखल वासनाएँ, तृष्णाएँ और महत्वाकांक्षाएँ ही मनुष्य का सारा ओज, रुचि एवं मस्तिष्क जोंकों की तरह चूसती रहती हैं । यदि इन नागिनों से छुटकारा पा ले और अपना अधिकांश समय, श्रम एवं बल आत्मकल्याण के लिए सोचने-विचारने और कुछ करने में लगाए तो जीवन के वास्तविक लक्ष्य को आसानी से पूर्ण कर सकता है। परन्तु अधिकांश मनुष्य जानबूझ कर इन इच्छाओं के दास बन जाते हैं। कई बार वह प्रतिज्ञा भी कर लेता है, परन्तु इच्छाएँ उस पर इतनी हावी हो जाती हैं, कि इच्छाओं के सामने आते ही सारी प्रतिज्ञाएँ ताक में धरी रह जाती हैं। यद्यपि मनुष्य इच्छाओं के चंगुल में फंस कर अतृप्ति के कारण बार-बार दुःख पाता है, इच्छा की पूर्ति करने में कई खतरों का भी सामना करना पड़ता है, उसका जीवन सदा भयाक्रान्त रहता है, फिर भी वह बारबार उन्हीं इच्छाओं में लिप्त हो जाता है । सन्त तिरुवल्लुवर कहते हैं-"इच्छा कभी तृप्त नहीं होती, किन्तु अगर कोई मनुष्य उसका स्वेच्छा से त्याग कर दे वह उसी समय सम्पूर्णता को प्राप्त कर लेता इसलिए उचित तो यह है कि मनुष्य किसी भी प्रकार की उच्छखल इच्छा को अपने पर हावी न होने दे।। ___इच्छाएं असन्तुष्ट पर हावी होती हैं आज अधिकांश व्यक्ति असन्तुष्ट दिखाई देता है। मनुष्य प्रत्येक मनोरथउच्छृखल मनोकामना-में सफलता, शीघ्रातिशीघ्र प्राप्त करना चाहता है, जो कुछ प्राप्त है, उसमें सन्तोष नहीं करता और अपनी योग्यता, सामर्थ्य और क्षमता से अधिक पाना चाहता है। यह निश्चित है, वह उतनी और उस प्रकार की वस्तु मिल नहीं सकती । इसीलिए वह असन्तुष्ट रहता है। असन्तोषजनित दुःख, चिन्ता और मगजमारी उसके जीवन को घेरे रहती है। जब व्यक्ति अपने से अधिक धनवान तथा साधन सम्पन्न को देखता है, कामभोगों की अधिक सुखसुविधाएँ दूसरों के पास उसकी दृष्टि में आती हैं, दूसरों के यहाँ कार, कोठी, नौकर-चाकर और सन्तानों की चहलपहल देखता है, तो उसके मन में भी आता है कि मैं भी ऐसा ही क्यों न बन जाऊँ। मेरे पास भी मौजशौक के साधन हों, मेरे आँगन में बच्चों की चहलपहल हो, मेरी तिजोरी में भी चाँदी भवानी की छनाछन हो, मेरे पास भी कार, कोठी और नौकर-चाकर हों। बस, इसी असन्तोष में से इच्छाओं का जन्म होता है, फिर इच्छाओं के साथ नाना कल्पनाओं के रंग भरे जाते हैं, इच्छाओं की पूर्ति के लिए नाना प्लानों की दौर शुरू होती है । इस प्रकार इच्छाएँ असन्तुष्ट मनुष्य पर हावी होकर चुडैलों की तरह तंग करती रहती हैं। यही बात ऋषिभाषित में कही गयी है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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