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________________ पाते नरक, लुब्ध लालची २६५ उच्छं खल एवं नीति-धर्ममर्यादा के विरुद्ध इच्छाओं को पूरी करना चाहता हूँ, वे छोटी-सी जिन्दगी में कैसे पूर्ण होंगी ? मान लो, आज ही उसकी जीवन लीला समाप्त होने आ गई, मृत्यु सामने आकर खड़ी हो गयी तो उन उच्छं खल इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं, विकृत कामनाओं, वासनाओं एवं तृष्णाओं का क्या होगा? वे कैसे सुलझेंगी, जिनके लिए वह प्रतिदिन अनवरत मनमस्तिष्क को बौद्धिक व्यायाम कराके थकाता रहता है, चिन्ताक्रान्त रहता है, जीवन के मूलभूत उद्देश्य और लक्ष्य को सर्वथा भूलकर उन उच्छं खल इच्छाओं के पीछे अहर्निश भागता रहता है ? जिन्दगी पानी के बुलबुले की तरह क्षणिक है, यह नितान्त सत्य है। भरी जवानी में, उठती उम्र के नौजवानों की लाशें रोज ही आँखों के आगे से गुजरती हैं, फूल-से कोमल बच्चे देखते ही देखते मुझ जाते हैं, फिर उस व्यक्ति के जीवन की क्या गारंटी है कि वह बुढ़ापा आने से पहले इस लोक से विदा नहीं होगा? और बचपन, यौवन और प्रौढ़ अवस्था को झटपट पार करके क्या बुढ़ापा नहीं झांकने लगेगा? बुढ़ापा आने के बाद तो मृत्यु कुछ भी दूर नहीं है। किसी समय आ सकती है वह ! अत: इच्छाओं के घोड़ों पर सवार होकर सरपट दौड़ने वालों के लिए यह सोचने की बात है कि यदि वह दुखःद घड़ी कल ही उपस्थित हो जाये तो क्या करेंगे? क्या उनकी बड़ी-बड़ी आसमानी इच्छाएँ उनके तूफानी मनसूबे, और उनकी येन-केनप्रकारेण प्रचुर धन कमाने की हविस, संसार के रंगमंच पर विलासिता और कामभोग की वासनाएं ज्यों की त्यों धरी नहीं रहेंगी। - यदि शरीर की अमिट वासनाओं, मन की अनन्त तृष्णाओं और अहंकार जनित विकृत महत्वाकांक्षाओं के रूप में समस्त इच्छाओं में से प्रत्येक को तृप्त करने में एक-एक भी लगा. दिया जाये तो सारा का सारा जीवन लगा देने पर भी सबका नम्बर नहीं आयेगा। यही नहीं, स्वल्प मात्रा में भी एक-एक इच्छा को पूर्ण करने में एक-एक पल लगाया जाये तो भी सम्पूर्ण जिन्दगी खपा देने के बावजूद सब इच्छाओं की बारी नहीं आयेगी। कुछ इच्छाएँ कदाचित पूर्ण होने-सी लगें, किन्तु बीच-बीच में आग में घी डालते रहने पर भी न बुझने वाली ज्वाला प्रज्वलित होती रहेगी, वह शान्त होने वाली नहीं। - हाँ, तो क्या मनुष्य इन इच्छाओं की पूर्ति के गोरख-धन्धे में ही लगा रहेगा? क्या वह उच्छृखल इच्छाओं का गुलाम बन कर उनके इशारे पर ही जिन्दगी भर नाचता रहेगा? इसके बदले में जीवन यात्रा के लिए आवश्यक और उचित साधन जुटाने में सामान्य श्रम, समय और मनोबल लगाने के अलावा शेष बचे श्रम, समय, मनोबल एवं पुरुषार्थ को आत्मकल्याण एवं परमार्थ में लगाया जाए तो कुछ इच्छाओं की पूर्ति से मिलने वाले कल्पित एवं क्षणिक वैषयिक आनन्द की अपेक्षा अक्षय और आत्मिक आनन्द मिलता। परन्तु यह तभी हो सकता है, जबकि वासनाओं, तृष्णाओं और महत्वाकांक्षाओं पर उचित नियन्त्रण प्राप्त करके मस्तिष्क को आत्मचिन्तन के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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