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कपटी होते पर के दास
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'धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ।' हमारा प्राचीन भारतीय योग शास्त्र तो मन की निष्कपटता पर अधिक जोर देता है । महात्मा ईसा के ये अमर वचन देखिये
'जिनका हृदय बालकों की तरह पवित्र है, स्वच्छ है, जो सरल और निष्कपट हैं, वे ही ईश्वरीय राज्य में प्रवेश करेंगे।'
'स्वच्छ हृदय मायारहित होता है, उसी में परमात्मा का निवास होता है।'
जो जीवन मायारहित सरल सत्यमय होता है, उस पर पशु-पक्षी आदि सभी प्राणी विश्वास कर लेते हैं, सरल, स्वभावी, व्यक्ति की वे सब सेवा करते हैं। सरल स्वच्छ हृदय में पर हृदयस्थ माया का पता लग जाता है, वह व्यक्ति राजनीतिक क्षेत्र में हो तो भी गांधीजी की तरह विरोधी भी उस पर विश्वास करते हैं, वह अजातशत्रु बन जाता है । द्रौपदी के हृदय में आए हुए गन्दे विचारों की शुद्धि सरलता से मायारहित होने पर ही हुई। मायारहित होने पर ही आलोचना, निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त आदि द्वारा व्यक्ति आत्मशुद्धि कर सकता है।
साध्य कितना ही पवित्र एवं उत्कृष्ट क्यों न हो, यदि उस तक पहुँचने का साधन मायादि दोषों से युक्त गलत है, तो साध्य की उपलब्धि भी असम्भव है। जिस तरह मिट्टी का तेल जलाकर वातावरण को सुगन्धित नहीं बनाया जा सकता, उसी तरह मायादि दोषयुक्त साधनों के सहारे उच्च लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वातावरण शुद्धि के लिए लोग सुगन्धित द्रव्य जलाते हैं, तथैव उत्तम साध्य के लिए साधनों का होना अनिवार्य है, जनसेवा जैसा सार्वजनिक क्षेत्र हो, या राजनैतिक, सामाजिक क्रान्ति हो या व्यक्तिगत साधना, सर्वत्र मायादि रहित शुद्ध साधनों के होने पर लक्ष्य की प्राप्ति होगी। आर्थिक क्षेत्र में भी नीति धर्मयुक्त पुरुषार्थ न करके लोग जुआ, सट्टा, चोरी, मिलावट, तस्करी, मुनाफा खोरी आदि मायायुक्त अनुचित उपायों को अजमाते हैं, वे स्व पर-कल्याण एवं आत्मशुद्धि के मार्ग में स्वतः रोड़ा अटकाते हैं, स्वयमेव माया जनित उपायों का आश्रय लेकर या झूठे आडम्बर आदि से प्रसिद्धि एवं वाह-वाही प्राप्त करके कुछ अर्से के लिए भले ही चमक जाएँ, पर वह तो 'चार दिनों की चाँदनी, फिर अंधेरी रात' की तरह अस्थायी चमक हैं, बुझते हुए दीपक की तरह एक बार की भभक है, फिर तो अन्धकार एवं पतन है । अतः जीवन का उत्थान चाहते हैं, आत्मा की विशुद्धि की अपेक्षा है, रत्नत्रय की साधना से साध्य-मोक्ष प्राप्त करने की तड़फन है, तो मायारहित जीवन बनाइये, वही उन्नत जीवन है। मायायुक्त जीवन तो शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थ आदि की गुलामी और परतन्त्रता की ओर ही ले जाता है, इनकी गुलामी से मुक्त शुद्ध स्वतन्त्र जीवन तो मायारहित होने पर ही प्राप्त होता है ।
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