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________________ १५ पाते नरक, लुब्ध लालची धर्मप्रेमी बन्धुओ ! आज आपके समक्ष एक ऐसे जीवन की चर्चा करना चाहता हूँ, जो महालोभी और महाकांक्षी होने से नरक का मेहमान बनता है। गौतमकुलक का १४वां जीवन सूत्र है यह ! गौतम महर्षि कहते हैं . 'लुद्धा महिच्छा नरयं उर्वति' । अर्थात् लोभी और महान् इच्छाओं वाले व्यक्ति नरक पाते हैं। इस सूत्र में लोभी और महाकांक्षी--महेच्छक व्यक्ति का जीवन कितना दुखी व उसकी अन्तिम गति कैसी होती है ? यह बताने के साथ-साथ उसका परिणाम-जीवन की सफलता असफलता का निचोड़ भी बता दिया है। नरक के साथ लोभ और महेच्छा का सम्बन्ध आप लोग जानते हैं कि नरक एक भयंकर गति है, जहाँ बड़े भयंकर दुःख और भय हैं। दुःख और भय के मारे जहाँ लोग चिल्लाते-चीखते हैं, जोर-जोर से हायतोबा मचाते हैं, विलाप करते हैं, रोते-झोंकते हैं, करुण पुकार करते हैं, फिर भी उनकी पुकार सुनकर कोई भी सहायता और रक्षा के लिए नहीं आता। बल्कि जब नारकीय जन दुःख और यातना के समय जोर-जोर से रुदन करके पुकारते हैं"हे माता-पिता ! हे तात ! मुझे छोड़ दो, मुझे बचाओ, मैं आयंदा ऐसा नहीं करूँगा, मैं आपका दास हूँ, मारो मत मुझे, तब नरक के परमाधार्मिक देव उसके साथ सहानुभूति बताना और उस पर दया करना तो दूर रहा, उलटे जोर से गर्जकर कहते है-'अब तुझे अपने को बचाने और दया की बात सूझी है, जिस समय अमुक पाप करता था, उस समय कहां गया था ? उस समय दूसरों के गिड़गिड़ाते रहने पर भी तुझे उनके प्रति दया, सहानुभूति नहीं आई, अब अपने लिए दया और सहानुभूति की याचना करता है !" यों कहकर और अधिक क्रूरता के साथ उसे यातना दी जाती है। उसकी चमड़ी उधेड़ ली जाती है, अधिक से अधिक क्रूर व्यवहार उसके साथ किया जाता है । इसीलिए नरक का निर्वचन एक आचार्य करते हैं 'नरान् कायति शब्दायते-आहूयते इति नरकः' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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