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________________ २८८ धोखा देता है, त्यों-त्यों वह अधिकाधिक कर्ममल का संचय करता है और उसके फलस्वरूप घोर संसार सागर में भ्रमण करने का बन्धन करता है । आनन्द प्रवचन : भाग ८ निष्कर्ष यह है माया करने से व्यक्ति इस जन्म में दासता एवं परवशता का दुःख पाता है । माया से अगले जन्म में दासता माया का फल केवल इसी जन्म में मिलता हो, ऐसा नहीं है, अपितु अगले जन्म में भी मनुष्य पाता है। एक उदाहरण लीजिए 1 पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में दो वणिक् रहते थे । उनमें परस्पर बहुत मैत्री थी । पर उनमें एक सरलस्वभावी था, जबकि दूसरा था माया का भण्डार । फिर भी दोनों का साझा व्यापार था । जो सरलमन वणिक् था, वह कपटी से कुछ भी छिपाता नहीं . था, मन लगाकर काम करता था, जबकि कपटी सरलमना वणिक् को बहुत ठगता था । फिर दोनों की रुचि दान देने की बहुत थी । आयुष्य पूर्ण करके दोनों में से सरलस्वभावी तो युगलिया हुआ और जो कपटी था, वह युगलक्षेत्र में चार दाँत वाला सफेद हाथी हुआ । वह जब बड़ा हुआ तो एक दिन घूमते-घूमते उसने पूर्व भव के मित्र युगलिये को देखा । उसके हृदय में प्रेम उमड़ा। उस युगलिये को वह अपनी सूंड से उठा कर अपनी पीठ पर बिठा लेता । उसकी यह विशेषता देखकर सभी युगलियों ने उसे सबसे विशिष्ट जानकर उसका नाम विमलवाहन रखा, उसे अपना नायक माना । उस हाथी को भी जाति स्मरण ज्ञान हुआ, जिससे उसने अपना पूर्वजन्म जाना कि मैं माया करने से तिर्यंच हाथी बना हूँ; मैं पराधीन और दास बना हूँ । इसीलिए एक आचार्य कहते हैं अधीत्यनुष्ठानतपः शमाद्यान् धर्मान् विचित्रान् विदधत् समायान् । न लप्स्यसे तन्फलमात्मदेहक्लेशाधिकं तांश्च भवान्तरेषु ॥ हे साधक ! ज्ञान, चारित्र, तप, शम आदि विविध धर्मों का आचरण माया सहित करते हुए तुम इनका फल अपनी काया को क्लेश के अतिरिक्त नहीं प्राप्त कर सकोगे, दूसरे जन्मों में भी उनका फल वही मिलेगा । माया रहित जीवन : आत्मशुद्धियुक्त वास्तव में, जिस जीवन में माया का वास होता है, वहाँ किसी धर्माचरण में या रत्नत्रय की साधना में एकाग्रता नहीं आ सकती, वह अपने मन, बुद्धि और इन्द्रियों का गुलाम, सांसारिक पदार्थों का दास और शरीर का वशवर्ती मोही बन जाता है धर्म भी मायारहित शुद्ध सरल जीवन में टिकता है । यही भगवान महावीर ने फरमाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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