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________________ कपटी होते पर के दास २८५ थे। सिनेमा भी प्रतिदिन देखते थे। यों १५ दिन बीत गए । पैसा सब खर्च हो चुका, इसलिए अब चारों ने अपने वतन की ओर जाने का निश्चय किया। जब वे रवाना होने लगे, तब लॉज वाले ने सौ रुपये का बिल उनके समक्ष रखा। बिल देख कर वे चौंके–' इतना अधिक बिल कैसे हुआ ?" लॉज वाले ने कहा--"उस समय भोजन की प्लेटों का आर्डर देना और खाना बहुत अच्छा लगता था, अब बिल चुकाना कड़वा लगता है ? परन्तु चारों मायाचारियों के पास धन समाप्त हो चुका था, इसलिए चेहरा फीका पड़ गया। वे लॉज वाले से झगड़ा करने लगे कि "हम इतना पैसा नहीं देंगे।" इस पर लॉज वाले ने कोर्ट में मुकद्दमा दायर किया। न्यायाधीश ने फैसला दिया कि “जब तक वे लॉज का पूरा बिल न चुका दें, तब तक चारों को लॉज में नौकरी करनी होगी।" इसीलिए तो कहा गया 'मायाविणो हुंति परस्स पेसा' मायी जन दूसरों के दास बनते हैं। छल कपट करनेवाले को दूसरों की चाटुकारी, चापलूसी, खुशामद, नम्रता, विनय आदि का व्यवहार करना पड़ता है, दूसरे की रुचि का पूरा खयाल रखना पड़ता है, मायाचार करने में भी पूरी सतर्कता रखनी पड़ती है, यह सब दासता या गुलामी ही तो है। एक नौकर भी अपने मालिक का इतना ध्यान नहीं रखता, उसे सिर्फ मालिक के द्वारा सौंपे हुए काम से मतलब रहता है, परन्तु माया-कपट करने वाले को जिसके साथ वह कपट करना चाहता है, उसके प्रति बहुत ही नम्र, मधुर व सरस व्यवहार करना पड़ता है। अपने भावों को छिपाने, बाहर-अन्दर की भिन्नता को प्रगट न होने देने के लिए कम प्रयत्न नहीं करना पड़ता। इस प्रकार मायाचारी का पार्ट अदा करने के लिए मायी को रातदिन दूसरे की इच्छा रखनी पड़ती है। माया के फलस्वरूप इस जन्म में दासता पूर्व जन्म में किसी ने माया छलकपट या कुटिलता की हो तो उसका फल इस जन्म में दासता के रूप में मिले बिना नहीं रहता। पद्मिनी वाराणसी के कमठ सेठ की इकलौती और लाड़ली बेटी थी। वह बचपन से महा माया का घट थी। माता-पिता को भी झूठ बोलकर, कपट रचकर खुश रखती थी। उनका भी पुत्री के प्रति अत्यन्त मोह था । यौवन अवस्था आते ही 'चन्द्र' नामक एक परदेशी के साथ घर जमाई बन कर रहने की शर्त पर पद्मिनी की शादी कर दी । कुछ अर्से बाद पद्मिनी के माता-पिता चल बसे । अब पद्मिनी और चन्द्र दोनों घर के मालिक हुए। परन्तु मायाविनी पद्मिनी अब स्वच्छन्द और अनाचारी हो गई। पति कहीं बाहर जाता तो वह परपुरुष के साथ अनाचार सेवन करती थी। परन्तु पति के आने पर वह अत्यन्त विनय का ढोंग करती और उसके वियोग में दुःखित हो जाने का ऐसा वर्णन करती कि पति समझता-यह महासती है। । नहा रहता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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