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________________ २८४ आनन्द प्रवचन : भाग ८ . आचार्यों का कहना है कि मनुष्य के दैनिक जीवन में बहुत-से मानसिक रोग दुरावछिपाव की जटिलता के कारण होते हैं । मानव जिस चीज को छिपाना चाहता है, वह प्रायः अनैतिक, अपराध या पाप होती है। उसके साथ उसकी अन्तरात्मा नहीं होती । इसलिए ये विषाक्त विचार दुविधा उत्पन्न करते हैं । दुराव के कारण मन में अशान्ति, किसी भी सत्कार्य में अरुचि, संघर्ष, निराशा, लोकलज्जा का भय आदि मानसिक संताप होते हैं । दुराव के कारण नासूर, भगंदर, दमा, बवासीर, संग्रहणी, खुजली, स्वभाव का चिड़चिड़ापन आदि रोग हो जाते हैं। प्रायः सभी प्रकार के पागलपन, स्त्रियों को हिस्टीरिया तथा मृगी के दौरे छिपी हुई इच्छाओं के कारण होते हैं। दुराव की ग्रन्थियाँ वीर्यकोष को निःशक्त कर देती हैं, जिस कारण सन्तान नहीं होती। इस प्रकार विविधरूपा माया को छोड़ने के लिए कवि कहता है छोड़ दे सारा मायाचार । पाप छिपा कर क्यों रखता है ? बनता है बीमार ॥ छोड़ दे०॥ ध्रुव ॥ सदा न छिप कर रह पाता छल, आज नहीं तो खुल जाता कल ॥ अविश्वास का लग जाता है, घर-घर में बाजार ॥ छोड़ दे० ॥१॥ 'छल ना की झूठी चतुराई, फट जाते हैं भाई-भाई। मुंह से भले न कुछ कह पाएँ, पर मन मे बेजार ॥ छोड़ दे० ॥ २ ॥ माया से दासता : क्यों और कैसे ? गौतम ऋषि माया का दुष्परिणाम दासता बताते हैं। उनका कहना है कि माया करनेवाले यहाँ भी गुलाम या दास का-सा जीवन व्यतीत करते हैं और अगले जन्म में भी उनके पल्ले गुलामी ही पड़ती है। क्योंकि मायी प्रायः तिर्यंचगति में पशुपक्षी की योनि में जन्म लेते हैं। जहाँ उन्हें जिंदगी भर पराधीनता, गुलामी और दासता का जीवन बिताना पड़ता है । उन्हें भूखे-प्यासे रहने, बोझा ढोने, मालिक की मार पड़ने आदि परतन्त्रता का दुःखमय जीवन ही जैसे-तैसे व्यतीत करना होता है। कदाचित् मानव जीवन भी मिला तो, नारी का पारतन्त्र्य युक्त, परवशता से भरा गुलामी और दासता से युक्त जीवन मिलता है । यह सब पूर्वकृत माया के ही दुःखद फल हैं। इसी जन्म में भी मायाचार के फलस्वरूप दूसरों के यहाँ नौकरी करनी पड़ती है या गुलामी की दशा में रहना पड़ता है। .. चार युवक मित्र थे, चारों स्वेच्छाचारी और मायाचारी। माता-पिता से पढ़ने का कह कर वे आवारा फिरते और मटरगश्ती करते थे। एक बार वे चारों अपने माता-पिता से कहे बिना अपने-अपने घरों से कपटपूर्वक पर्याप्त धन लेकर पर्यटन के लिए चल पड़े। घूमते-घामते वे एक बड़े शहर में एक लॉज में ठहरे। वे प्रतिदिन नित नये बढ़िया-बढ़िया भोजन करते और सैरसपाटा करते हुए मौज उड़ाते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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