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________________ २८६ आनन्द प्रवचन : भाग ८. पद्मिनी के एक पुत्र हुआ, तब वह सोचने लगी कि इसे स्तनपान कराऊँगी तो मेरे सब अंग शिथिल हो जायेंगे, मेरा सौन्दर्य और यौवन फीका पड़ जायेगा । अतः पति से कहा- "आज तक मैंने किसी परपुरुष का स्पर्श नहीं किया, तो अब इस बालक को मैं स्तनपान कैसे करा सकूँगी ?" भोलेभाले पति ने उसकी कपटभरी बातें सच्ची मानकर बालक को स्तनपान कराने, खिलाने आदि के लिए एक धाय रख ली । एक दिन चन्द्र अपनी दुकान में बैठा था। उस समय मकान की छत पर से एक तिनका एक तरुण ब्राह्मण के सिर पर पड़ा । जो उसकी दुकान में बैठा था । अतः चन्द्र ने वह तिनका उसके मस्तक से उठाकर फेंक दिया। इस पर ब्राह्मण कटारी से अपना मस्तक काटने लगा। चन्द्र ने उसे कसकर पकड़ लिया, पूछा-"यह क्या कह रहे हो, भाई ?" वह बोला-"आज तक मैंने किसी का बिना दिया हुआ तिनका भी नहीं लिया और आज यह तिनका मेरे मस्तक ने बिना दिये ग्रहण कर लिया अतः मेरा व्रत भंग हुआ है, इसलिए मैं मस्तक काट रहा हूँ।" चन्द्र ने बहुत कुछ समझाकर उसे वैसा करने से रोका। . चन्द्र के मन में इस ब्राह्मण की ब्रत दृढ़ता देखकर विचार आया-"मेरी स्त्री पतिव्रता है और यह ब्राह्मण निर्लोभी और ब्रह्मचारी है, अतः मेरे घर में रहने लायक है ।" यों सोचकर चन्द्र उसे आग्रहपूर्वक अपने घर ले गया, भोजन कराया और कहा-बस, अब तुम मेरे घर पर ही रहो । कहीं जाना मत । तुम्हारी सब व्यवस्था मैं करूँगा।" यों उस ब्राह्मण को घर में रखकर चन्द्रसेठ निश्चिन्त हो गया । कुछ ही दिनों बाद ब्राह्मण और पद्मिनी में परस्पर प्रेम बढ़ा और दोनों एक दूसरे से अनाचार सेवन करने लगे । एक बार चन्द्रसेठ कुसुमपुर गया। वहाँ नगर के बाहर एक उद्यान में एक पक्षी काष्ठ की तरह निश्चेष्ट पड़ा देखा । लोगों के झुंड के झुंड आकर उसे तपस्वी की तरह पूजने लगे । परन्तु जब उसके पूजक लोग चले जाते, तब वह दुष्ट पक्षी उड़ कर चुगे के लिए गये हुए दूसरे पक्षियों के घोंसलों में घुस कर उनके अंडों को चटकर जाता । फिर अपने स्थान पर आकर ध्यानस्थ योगी-सा बैठ जाता। फिर चन्द्रसेठ अपने सेवक के साथ शौच के लिए गया, तो वहाँ एक तपस्वी को देखा, जो गाड़ी की धूसर परिमित भूमि देखता तथा पूंजता हुआ एक वृक्ष के नीचे आकर कायोत्सर्ग में स्थित हो गया। इसी दरम्यान एक राजकन्या अपनी सखियों के साथ वहाँ खेलने के लिए आई। जब वह राजकन्या अपनी सखियों को छोड़कर अकेली कुतूहल वश उस तापस को देखने निकट आई तो उसने उसे अकेली जानकर उसकी गर्दन मरोड़ दी और उसके गहने उतार कर जमीन में गाड़ दिये । राजकुमारी को मारकर एक खड्डे में गाड़ दिया। फिर वह दूसरी जगह जाकर कायोत्सर्ग में स्थिर हो गया। यह सब कौतुक देखकर चन्द्रसेठ अपने डेरे पर आया । इधर राजा ने अपनी पुत्री की चारों ओर खोज कराई, पर वह मिली नहीं, अतः नगर के चौराहे पर घोषणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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