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________________ २६४ आनन्दं प्रवचन : भाग ८ अपनी प्रशंसा सुनकर अहंकाराविष्ट अग्नि ने यक्ष के पास पहुँचकर साहंकार पूछा"तुम कौन हो ?" यक्ष ने हँसकर कहा-'अग्निदेव ! अपनी शक्ति का अहंकार न करो। यदि सचमुच इतने समर्थ हो तो इस तिनके को जलाकर दिखाओ।' अग्नि ने अपनी सारी शक्ति लगा दी, मगर तिनके को वह जला न पाया। अग्नि देव अहंकार मग्न होकर गए थे, लेकिन लौटे पराजय लेकर । तब इन्द्र ने महाबली मरुत को भेजा। मरुत से भी यक्ष ने वही बात कही। मगर बलगर्विष्ठ मरुत भी उस तिनके का कुछ न कर सका । तब क्रमशः वरुण, पृथ्वी और आकाश सभी ने अपनी शक्ति आजमाई, लेकिन तिनके का कुछ भी न बिगाड़ सके। तब इन्द्र स्वयं वहाँ आए, तिनके को बड़े ध्यान से देखा, फिर ऊपर दृष्टि उठाई तो न तो वहाँ कोई यक्ष था, न छाया । इन्द्र ने ध्यान लगा कर देखा तो पता चला कि उनके कर्तापन के अहंकार को नष्ट करने के लिए ही यह योजना थी। पूछने पर उनने कहा-मैं विश्व का अधिष्ठाता ब्रह्म (आत्मा) हूँ। तुमने अहंकारवश सदा त्याग और बलिदान करने वाले उन व्यक्तियों को भुला कर असुरविजय का सारा श्रेय स्वयं लेना चाहा, इसीलिए' तुम्हारे स्वयं विजेता बनने के अहंकार को नष्ट करने और तुममें गुणाग्रहकता पनपाने हेतु मुझे यहाँ आना पड़ा।' इन्द्र का अहंकार नष्ट हो गया। उसने भूल के लिए क्षमा मांगी। अभिमानी अपनी शक्तियों को नहीं पहिचानता अभिमानी को मान का ऐसा नशा चढ़ जाता है कि वह अपनी शक्तियों का ठीक माप-तौल नहीं कर पाता । कई बार वह आवेश में आकर, अपनी शक्ति के मद में आकर दूसरों पर आक्रमण कर देता है, मगर शीघ्र ही उसे मुंह की खानी पड़ती है । यहाँ तक कि उसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है । एक राजा था। उसके पास बहुत से जी-हजूरिये रहते थे, जो राजा की हाँ में हाँ मिलाते और उन्हें ठकुर सुहाती कहते थे। राजा की प्रशंसा के पुल बाँधकर वे उसे आसमान में चढ़ा देते थे। राजा को भी उन मिथ्या-प्रशंसकों के मुंह से अपने गुणगान सुनकर अहंकार आ गया। वह अपने आपको शक्तिशाली और समर्थ सम्राट समझने लगा । एक दिन राजा जी-हजूरियों को साथ लेकर समुद्रतट पर घूमने गया। समुद्र में उस समय ज्वार आ रहा था। बड़ी-बड़ी उत्ताल तंरगें उछलती हुई आकाश को छु रही थीं। राजा ने अपनी कुर्सी उन तंरगों के पास रखवाई और जीहजुरियों से पूछा- क्या मेरा राज्य सर्वत्र नहीं है ?' उन्होंने कहा-'हजूर ! आपका राज्य तो सर्वत्र ही है।' राजा ने कहा-'इस समुद्र को भी मेरी आज्ञा माननी चाहिए या नहीं ?' जी-हजूरिए बोले-'हाँ, अवश्य माननी चाहिए, महाराज !' राजा ने समुद्र के बढ़ते हुए ज्वार को लक्ष्य करके कहा—'अरे मूर्ख ! तुझे कुछ पता है या नहीं ? तेरा राजा यहाँ जिंदा बैठा है, फिर भी तू आगे क्यों बढ़ रहा है। पीछे हट ।' पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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