SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभिमानी पछतति रहते २६३ वास्तव में बड़प्पन तभी सिद्ध होता है, जब मनुष्य अहंकार को त्याग देता है। पाश्चात्य विचारक यंग (Young) के शब्दों में देखिए 'Where boasting ends there dignjty begins.'. 'जहाँ अभिमान समाप्त होता है वहाँ से बड़प्पन या महानता शुरू होती है। परन्तु अहंकारी मनुष्य इस बात को देवशर्मा की तरह भूल जाता है, वह अपनी सिद्धि के अहंकार में महान् व्यक्तियों की अवहेलना कर देता है, दूसरों की आध्यात्मिक सिद्धियों का तिरस्कार कर देता है। एक दिन गोशालक ने भी अपनी तेजोलेश्या की सिद्धि के गर्व में आकर भगवान महावीर के दो शिष्यों को भस्म कर दिया था, और भगवान महावीर को भी चेलेंजे देने लगा था। वह इसे भूल गया कि जिस समय मदोद्धत होकर वह वैश्यायन बालतपस्वी का उपहास कर रहा था, और उसने गोशालक को भस्म करने के लिए तेजोलेश्या छोड़ी थी, उस समय भगवान महावीर ने ही उसे शीतलेश्या द्वारा बचाया था। उस समय उसका अभिमान उतर गया था, लेकिन तेजोलेश्या की उपलब्धि के गर्व में वह पुनः भगवान को ललकार रहा था। परन्तु भगवान महावीर पर उसका वश न चला। उसका अहं पराजित हो गया। अहंकारी जब अपमानित हो जाता है, तब उसे बदला लेने की चिन्ता सताती है । उसके अहं पर करारी चोट लगती है तो वह तिलमिला उठता है। परन्तु वह यह भूल जाता है कि जब तक उसके अन्दर अहं भाव की हवा भरी रहेगी, तब तक वह फुटबाल की तरह ठोकरें खाता ही रहेगा।' अभिमानी व्यक्ति सोडाबाटर की शीशी की गोली की तरह न तो अन्दर की गन्दगी को बाहर निकलने देता है और न ही बाहर की ताजी हवा को अन्दर आने देता है। वह तो अपने अहंकार के घोड़े पर बैठकर दूसरों को जीतने या प्रतिशोध लेने के लिए चल पड़ता है। वास्तव में अभिमानी में दानवीय शक्ति आ जाती है जो उसे पापकर्म करने को प्रेरित करती है। परन्तु जिस प्रकार यक्षाविष्ट अर्जुनमाली का दानवीय (आसुरी) अभिमान धर्मवीर सुदर्शन श्रमणोपासक के दैवीबल के आगे समाप्त हो गया, वैसे ही प्रत्येक अहंकारी का अहंकार अन्ततोगत्वा पराजित होकर रहता है। पुराणों में एक कथा आती है कि इन्द्र को एक बार यह अभिमान हो गया कि 'मैं न होता तो वृत्रासुर को कोई भी मार नहीं सकता था।' प्रजापति ब्रह्मा ने इन्द्र के इस अहंकर्त त्व के अभिमान को नष्ट एवं पराजित करने को निश्चय किया । एक अनुपम कान्तिमान विद्युत की भांति देदीप्यमान यक्ष देवों के समक्ष आ खड़ा हुआ ! इन्द्र ने उसके मनोहर सौन्दर्य को देखते ही अग्नि से कहा -'जातवेद ! आप हम सबमें अग्रणी पूज्य और ज्योतिर्मान हैं, आप पता लगाएँ कि यह यक्ष कौन है ?' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy