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________________ क्रोधीजन सुख नहीं पाते २४१ अर्थात् — क्रोध मनुष्य के मन में सन्ताप बढ़ाता है, विनय का नाश करता है, मित्रता को मिटाता है, उद्विग्नता पैदा करता है, क्रोध पापकारी वचन का जनक है । वह केवल कलह ही उत्पन्न करता है । कीर्ति को नष्ट कर देता है, दुर्गति देता है, पुण्य का सर्वनाश कर देता है और अन्त में वह कुगति प्रदान करता है । इसलिए सज्जन पुरुषों को इतने दोषों से परिपूर्ण रोष का सर्वथा त्याग करना ही उचित है शूर-वीर सुभट को अन्तरंग शत्रु – जो इस धर्मदेशना को सुनकर राजा ने पूछा - " भगवन् ! कैसे जीतना चाहिए ?" केवली भगवान ने कहा - " राजन् ! काम, क्रोध आदि हैं, उन्हें जीतना चाहिए क्योंकि इनका दुष्परिणाम महाभयंकर है ।" कहकर केवली भगवान ने क्रोध के भयंकर परिणामों का उल्लेख करने की दृष्टि सेक्रोधी सूर के जन्म से लेकर ग्राम के पटेल के भव तक की सारी जीवन कथा कही । उसे सुनकर अनेक भव्य जीवों ने प्रतिबोध पाया । भला ! जो व्यक्ति क्रोध - तीव्र क्रोधवश एक बार गलत काम कर लेता है, वह फिर जन्म-जन्मान्तर तक प्रतिबोध न पा सकने के कारण अज्ञानवश उन्हीं क्रोधजति कुकृत्यों को जन्म-जन्म में दोहराता रहता है । कितना भयंकर है - क्रोध रूपी शत्रु ! क्रोध शत्रु जब पीछे लग जाता है तो व्यक्ति की शान्ति जन्म-जन्म में हराम हो जाती है । सुख की प्राप्ति तो हो ही कैसे सकती है ? बल्कि वैर-परम्परा बढ़ने से दुःख बढ़ता है | पाश्चात्य विचारक 'मार्क्स ऑरेलियस' क्रोधी को विचार करने की प्रेरणा देता है— 'Consider how much more you often suffer from your anger and grief than from those very things for which you are angry and grieved." विचार करो, तुम जिन व्यक्तियों या वस्तुओं से क्रुद्ध और चिन्तित होकर पीड़ित होते हो, इसकी अपेक्षा तुम अपने क्रोध और चिन्ता से कितने अधिक पीड़ित होते हो ? इसी क्रोध ऋषाय में एक जहरीला कांटा है जो चुभ जाने पर निकलना कठिन होता है । इसीलिए एक मलाबारी कहावत है 1 ‘Anger is as a stone cast into a wasp's nest' क्रोध करना मानो मधुमक्खियों के छत्ते में पत्थर फेंकना है । मधुमक्खी के छत्ते में पत्थर फेंकते ही वे चारों ओर से आकर उसे काटने लगती हैं, वैसी ही स्थिति क्रोध करने वाले की होती है । क्रोध करते समय मनुष्य के दिल में मधुमक्खी के डक से भी अनेक गुनी पीड़ा होती है । क्रोध करने वाले को तब जाकर भयंकर पीड़ा होती है, जब वह उसके कारणों पर विचार करने को वापस लौटता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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