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________________ २४० आनन्द प्रवचन : भाग ८ तरह अहर्निश क्रोध से जलता रहता था। स्वभाव से ही वह कठोर भाषी था । राजसभा में वह अनेक लोगों को कटु वचन कह कर लड़ पड़ता। एक दिन क्रोधावेश में आकर उसने अपने पिता का गला मसोस कर मार डाला। यह कुकृत्य देखकर उसकी माँ अपने पीहर चली गई। राजा ने भी उसे दुष्ट जानकर उसका पुरोहित पद छीन लिया । इतने पर भी उसकी आँखें रोष से सदा लाल रहती थीं । पड़ौसियों से भी वह बात-बात में झगड़ा कर बैठता था । सूर की पत्नी अत्यन्त रूपवती थी, राजा उस पर आसक्त होकर उसे अपने अधीन करने की उधेड़बुन में लगा था। इसी बीच सूर ने एक दिन अपने पड़ौसी के साथ लड़कर क्रोध से उसका सिर फोड़ डाला। वह मर गया । इस अपराध के कारण राजा ने उसका समस्त धन छीन लिया और उसकी स्त्री को अपने अन्तःपुर में रख कर उसे देश निकाला दे दिया। कहा भी है.. "क्रोधः परितापकरः सर्वस्योगकारकः। वैरानुषंगजनकः क्रोधः सुमतिहंतकः ॥" -क्रोध परिताप पैदा करता है, वह सबको उद्विग्न करने वाला है। वैर परम्परा को पैदा करता है, इसलिए क्रोध सुगति का नाशक है । सूर क्रोध में भन्नाता हुआ जा रहा था, रास्ते में एक तापस का आश्रय देखकर उसने तापस दीक्षा ले ली। तत्पश्चात् अनेक प्रकार के अज्ञानतप किये। अन्तिम समय में उसने निदान किया- "इस तप के फलस्वरूप मैं देव बनकर इस राजा का मारने वाला बनूं ।" अतः वहाँ से मर कर वह वायुकुमार देव बना । वहाँ पूर्वजन्म के वैर का स्मरण करके उसने नगर पर धूल की वर्षा की, सारे नगर को धूल में दबा दिया । इस पाप के फलस्वरूप वह मरकर डूम (चाण्डाल) हुआ । वहाँ से मर कर वह प्रथम नरक में नारक बना। तत्पश्चात् अनन्त जन्मों तक परिभ्रमण करतेकरते मगध देश के किसी गाँव में वह पटेल हुआ। परन्तु यहाँ भी उसका तीव्र क्रोध गया नहीं। एक दिन क्रोधावेश में आकर उसने भरे बाजार में राजा से लड़ाई की। उन्हें दुर्वचन कहे। राजा ने उस पटेल को एक पेड़ की शाखा से बाँध कर औंधे मुंह लटका दिया। इसी दरम्यान ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए उस गाँव में केवलज्ञानी भगवान पधारे । उनका समवसरण लगा। राजा आदि सभी धर्म प्रेमीजन उनके दर्शन-वन्दन करने गए । केवली भगवान ने समस्त परिषद को धर्म देशना दी। उन्होंने विशेषतः क्रोध के दुष्परिणाम बताते हुए कहा "संतापं तनुते, भिनत्तिविनयं, सौहार्दमुत्सादयत्युद्वेगं जनयत्यवद्यवचनं सूते विधते कलीं। कोति कुन्तति, दुर्गति वितरति, व्याहन्ति पुण्योदयम् दत्ते यः कुगति स हातुमुचितो रोषः सदोषः सताम् ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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