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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २२३ विश्व-बन्धुत्व का दायरा इतना विशाल होते हुए भी मनुष्य उस वन्धुत्व को संकीर्ण-अतिसंकीर्ण दायरे में बन्द कर देता है, कभी परिवार के दायरे में, तो कभी जाति, प्रान्त, नगर, गाँव या राष्ट्र के दायरे में। इसलिए बान्धव की पहिचान कराते हुए नीतिकार कुछ खास विपत् स्थानों का उल्लेख करते हैं "उत्सवे व्यसने युद्ध दुभिक्षे राष्ट्रविप्लवे । राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः। --धार्मिक या सामाजिक उत्सवों के अवसरों पर जो सम्मिलित होता है या वहाँ की व्यवस्था में भाग लेता है, अपनी सेवाएँ देता हैं, आफत या कष्ट पड़ने पर जो सब तरह से यथाशक्ति यथावसर सहायता देता है, युद्ध या लड़ाई के समय जो मदद देता है, दुष्काल के समय पीड़ित व्यक्तियों को सहायता देता है, राष्ट्र में विद्रोह या विग्रह होने पर जो अपना सर्वस्व झौंक देता है, राजदरबार में भी जो दुखित व्यक्ति का साथी बनता है, श्मशान में जो मृत व्यक्ति के पीछे परिवार को आश्वासन देता है, वही वास्तव में बान्धव है। ये सब स्थान बान्धव को परखने के हैं। इन क्षेत्रों में जो किसी व्यक्ति के साथ रहता है, बन्धुत्व को लेकर किसी घायल के घावों पर मरहमपट्टी करता है, वही वास्तव में बन्धु-बान्धव है । एक उर्दू शायर 'नश्नर' ने मानव जाति की सभ्यता की निशानी बन्धुता को बताई है यह है तहजीब' आदमी में हो हया । दिल में हर लहजा' रहे खौफेरूदा' जीने का मकसद' हो खिदमत खल्क' की । ___ आदमी के काम आए आदमी॥ महासती सीता को जब श्रीराम ने घोर वन में पहुँचा दिया, तब अकेली, असहाय और दुःख पीड़ित सीता का कोई भी सहायक नहीं था। फिर भी सीता ने आत्मविश्वास रखकर उस घोर वन में अपने आप को प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया। अचानक वहाँ वज्रजंघ राजा आ पहुंचे। उन्होंने एकाकी सीता को इस प्रकार विपन्न अवस्था में देखा तो उनका हृदय भर आया। वे स्वयं बन्धु बनकर सीता को अपने यहाँ ले गए और सब प्रकार से कष्ट-निवारण किया । दुष्कालपीड़ित मानवों के बन्धु : खेमाशाह जब पृथ्वी पर कोई प्राकृतिक प्रकोप- भूकम्प, बाढ़, दुष्काल, सूखा या महामारी आदि विपत्ति के रूप में होता है तो उस समय अपने देश या प्रान्त के सिवाय दूसरे देश या प्रान्त के लोगों से भी पीड़ितों के बान्धव बनने की अपेक्षा रखी १ सभ्यता। ४ उद्देश्य । २ प्रत्येक क्षण । ५ सेवा । ३ परमात्मा का डर। ६ जनता की। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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