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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २२१ मैंने एक जगह लुई पाश्चर की तस्वीर देखी । उसके नीचे एक वाक्य लिखा था-"मैं आपका धर्म, जाति या देश आदि नहीं जानना चाहता। मैं तो सिर्फ आपकी पीड़ा दूर करना चाहता हूँ।" वास्तव में जो किसी भी भेदभाव या संकीर्णता के बिना केवल दुःख और विपत्ति में पड़े हुए की पीड़ा दूर करना चाहता है, वही बान्धव है। जो सुखभोग करने में तो सबसे पहले रहे और दुःख के समय किनारा कसी कर ले, वह बन्धु की ओट में शत्रु है। इसीलिए बन्धु और अबन्धु का अन्तर बताते हुए स्पष्ट कहा है ___ "स बन्धुर्यो विपन्नानामापदुद्धरणक्षमः । न तु भीत-परित्राण-वस्तूपालम्भपण्डितः॥" -"बन्धु वह है, जो विपत्ति में पड़े हुए लोगों का विपत्ति से उद्धार करने में समर्थ हो, वह बन्धु नहीं है, जो भय से परित्राण पाने की अपेक्षा हो, वहाँ तरहतरह से उपालम्भ देने में पण्डित हो।" कई लोगों की आदत होती है कि वे किसी नदी या तालाब में डूब जाने पर तैरने में समर्थ होते हुए भी उसे बाहर निकालकर रक्षा नहीं करते, उसे संकट से उबारा नहीं, और लगते हैं-उलाहना देने-पहले मैंने तुम्हें कितना मना किया था कि तुम नदी या तालाब में अन्दर मत घुसो, डुबकी मत लगाओ, अब भोगो अपने कर्मों का फल !" वास्तव में ऐसे लोग जो विपत्ति में पड़े हुए को केवल उपदेश दे देते हैं, या केवल सिक्के फैंक देते हैं उसके सामने वे सच्चे अर्थों में बान्धव नहीं हैं, वे केवल ऊपर ऊपर से सहानुभूति बताकर रश्म अदा कर देते हैं । जैसे कई लोग किसी मृत व्यक्ति के यहाँ उसके परिवार वालों के प्रति शोक---संवेदना व्यक्त करने जाते हैं, वे मौखिक रूप से प्रायः अफसोस प्रगट करके आ जाते हैं । मृतक की पत्नी, या उसके भाई आदि को वे हृदय से प्रायः आश्वासन या सान्त्वना नहीं देते। वे मृतक के पीछे दुःखी या पीड़ित सम्बन्धी को साफ-साफ सान्त्वना या सक्रिय सहायता नहीं देते कि बन्धुवर ! या बहन ! वह मर गया तो क्या हुआ, मैं तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम चिन्ता न करो। मैं तुम्हारा ही एक छोटा-सा बन्धु हूँ। लो मेरी यह सहायता स्वीकारो।" एक बार एक ऊँट पर बैठकर एक पण्डितजी और सेठजी कहीं जा रहे थे। मारवाड़ का रेतीला प्रदेश था। भयंकर लू चल रही थी। इस भयंकर गर्मी से गरीब मानव झुलस कर खत्म हो जाते हैं । रास्ते में एक जगह एक बीमर जिसे लू लग गयी थी, पड़ा-पड़ा कराह रहा था। उसे किसी ऐसे बन्धु की आवश्यकता थी, जो उसे निकटवर्ती हॉस्पिटल में ले जाकर उसकी चिकित्सा करा दें।" सबसे पहले पण्डितजी की दृष्टि उस पर पड़ी, उनके हृदय में कुछ सहानुभूति जगी। वे ऊँट को रोककर नीचे उतरे और रोगी के पास जाकर लगे उपदेश झाड़ने- "भाई ! अब रोता क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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