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________________ २२० आनन्द प्रवचन : भाग ८ व्याख्यानों का आयोजन आदि भी किया। अतः लोक व्यवहार में बान्धव की परम आवश्यकता रहती है। बान्धव कौन और कैसा हो ? अब सवाल यह है कि बन्धु-बान्धव की अपेक्षा होते हुए भी यह तो प्रत्येक व्यक्ति को सोचना ही पड़ेगा कि बन्धु या बान्धव कैसा हो ? नहीं तो, इस विकट संसार यात्रा में कई मानव यात्री ऐसे स्वार्थी, मनचले एवं ठग बन्धुओं के चक्कर में आकर ठग गए हैं, उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर अपना सर्वस्व लुटा चुके हैं । बन्धु के नाम पर कट्टर शत्रुता का काम करने वाले बान्धव की ओट में गला काटने वाले तो अनेक मिलते हैं । इसीलिए नीतिकार सच्चे बन्धु-बान्धव की पहिचान के लिए मार्गदर्शन देते हैं "पुरा वृत्त-कथोद्गारैः कथं निर्णीयते परः, स्यानिष्कारणबन्धुर्वा कि वा विश्वासघातकः ? परोऽपि हितवान् बन्धुर्बन्धुरप्यहितः परः । अहितो देहजो व्याधिहितमारण्यमौषधम् ॥" किसी अपरिचित पराये व्यक्ति के सम्बन्ध में पहले ही उसकी बातों और साधारण व्यवहार से कैसे निर्णय किया जा सकता है कि यह निष्कारण बन्धु है या विश्वासघाती स्वार्थी मनुष्य है ? जो पराया होकर भी अगर हितैषी है तो बन्धु है और जो बन्धु कहलाकर भी अहित करता है, वह पराया है—शत्रु सा है। शरीर से उत्पन्न होनेवाला रोग अपना होते हुए भी अहितकर होता है और जंगल का औषध पराया होने पर भी हितकर होता है। निष्कर्ष यह है कि बन्धु-बान्धव का निर्णय उसकी जाति, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेशभूषा, उसकी मीठी-मीठी चिकनी-चुपड़ी बातों या एक-दो बार के मधुर व्यवहार आदि पर से ही नहीं करना चाहिए, अपितु हितषिता की कसौटी पर कस कर उसकी बन्धुता परखनी चाहिए। हितैषिता की कसौटी में खरा उतरने के बाद ही माना जा सकता है कि यह बन्धु या बान्धव है, अन्यथा, जाति, धर्म-सम्प्रदाय, देश, वेश, मधुर वचन और मधुर व्यवहार की ओट में बन्धु बनने वाले हजारों मिल जायेंगे, जिनमें निःस्वार्थ बन्धुता नाममात्र को भी न होगी, ऐसे बन्धु बननेवाले व्यक्ति कई बार मनुष्य के चरित्र का सत्यानाश कर देते हैं अथवा वे केवल स्वार्थ के लिए बन्धु बनते हैं, जो स्वार्थ न सधने पर आँखें बदल देते हैं, किनारा कसी कर जाते हैं । एक कवि बन्धु-बान्धव बनाने से पहले उसको परखने का गुर बताता है "सज्जन ऐसा कीजिए ढाल सरीखो होय । दुःख में तो आगे रहे, सुख में पाछो होय ॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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