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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २१६ हैं ? साधु-साध्वी भी घर-बार, परिवार या सांसारिक रिश्ते-नातों को छोड़ कर एक विशाल मानव कुटुम्ब के बन जाते हैं, वहाँ भी वे संघ बनाते हैं, उनमें उनके परस्पर सहायक गुरुभ्राता या गुरुभगिनी होते हैं । वहाँ भी उन्हें तब तक उन पारमार्थिक बन्धु बन्धुवों या अनुयायियों की अपेक्षा रहती है, जब तक वे उच्च कक्षा या उच्च गुणस्थान की भूमिका पर आरूढ़ न हो जाएँ । एक बार महात्मा ईसा बहुत से जिज्ञासुओं से घिरे हुए उन्हें उपदेश दे रहे थे। तभी किसी ने आकर उनसे कहा - " आपके भाई और माता वहाँ बाहर खड़े हैं, आपसे वे बात करना चाहते हैं । आप जाकर उनसे मिल लीजिए ।" ईसामसीह बहुत ही साधारण भाव से यह उत्तर देकर अपने उपदेश में लग गए - "संसार में मेरा भाई और मेरी माता अन्य कोई नहीं, यही जिज्ञासु जनता ही मेरे बन्धु बान्धव और मेरी माता है । क्योंकि जो मेरे स्वर्गीय पिता के आदेश पर चले, वही मेरा भाईबन्धु, बहन व माता-पिता हैं । मैं परमात्मा के आदेशों का पालन करने वाले को ही बन्धु बान्धव मानता हूँ ।" आध्यात्मिक दृष्टि से बान्धव कौन ? आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा के ६ गुण ही साधक के बन्धु बान्धव हैं । एक बार एक आध्यात्मसाधक से किसी जिज्ञासु ने पूछा- आपके बान्धव कौन हैं ? आप घर बार, कुटुम्ब - कबीला, समाज, जाति आदि सब सांसारिक सम्बन्धों को छोड़ कर साधु बन गए हैं । आपके पास पैसा भी नहीं, नौकर चाकर भी कोई नहीं है, जो आपकी सेवा कर सके और न ही संकट में आपकी रक्षा करने वाले कोई रक्षक हैं, फिर बिना बन्धु बान्धव के आप संसार में सुख से कैसे जी सकेंगे ?" उस मस्त साधक ने अपनी मस्ती में उत्तर दिया " सत्यं माता पिता ज्ञानं, धर्मो भ्राता, दया सखा । शान्तिः पत्नी, क्षमा पुत्रः षड़ते मम बान्धवाः ॥ - " सत्यता मेरी माता है, ज्ञान मेरा पिता है, धर्म भाई है, दया सखा है, शान्ति पत्नी है और क्षमा पुत्र है, ये छह मेरे बान्धव हैं, जो हर संकट में, कष्ट में मेरा साथ देते हैं, मेरी सहायता करते हैं ।” स्वामी रामतीर्थ जिस स्टीमर में विदेश यात्रा कर रहे थे, जब बन्दरगाह पर जहाज खड़ा हुआ, सभी यात्री उतर रहे थे, तब वे खड़े थे । एक विदेशी यात्री ने साश्चर्य पूछा—“अरे ! आपके पास तो कुछ सामान ही नहीं है । मालूम होता है, पैसे भी आपके पास नहीं रहे हैं । इस समय आपको कौन सहायता करेगा ?” स्वामी रामतीर्थ ने वेदान्त की भाषा में उत्तर दिया- 'आप ही मेरे बन्धु हैं, जो मुझे सहायता लिए पूछ रहे हैं ? आप में सहानुभूति जगी, इसलिए आपसे बढ़कर मेरा इस समय बान्धव और कौन होगा ?" बस, इतना कहना था कि वह विदेशी स्वामीजी का बान्धव बन गया । उसने स्वामी के आवासादि की व्यवस्था तो की ही, उनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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