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________________ २१८ आनन्द प्रवचन : भाग ८ लाकर उसे दिखा सकते हैं । परन्तु रोग का जो कष्ट है, वह तो उस व्यक्ति को अपने आप ही भोगना पड़ता है । इसी दृष्टि से गीता में कहा है ___"आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः।" 'आत्मा ही आत्मा का बन्धु है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।' भगवान महावीर ने भी कहा . "अप्पा मित्तममित्तं च सुप्पट्टिओ दुप्पट्ठिओ।" आत्मा जब अच्छाइओं या धर्माचरण की ओर प्रस्थित होता है तो वही अपना बन्धु या मित्र बनता है और जब यही आत्मा बुराइयों या पापाचरण-बुरे मार्ग की ओर प्रस्थित होता है, तब वही अपना शत्रु-अबन्धु बन जाता है। __ आप समझ गए होंगे कि आत्मा कब और कैसे बन्धु बन जाता है और कब और कैसे शत्रु बन जाता है ? अच्छे कर्म या कर्मों का क्षय करने पर आत्मा अपना बन्धु बनकर उसे अच्छी गति में जाने में या जन्ममरण के चक्र को समाप्त करने में सहायक बनता है। शुभ गति में, शुभ कर्मों के कारण उस व्यक्ति को सुख और सुख के साधन मिलते हैं। उसमें बाहर का कोई भी व्यक्ति हस्तक्षेप नहीं कर सकता और न एक के सुख-दुःख को दूसरा भोग सकता है। यही आत्मा की बन्धुता है । इसीलिए आचारांग सूत्र में कहा है _ 'पुरिसा ! तुममेव तुम मित्तं, कि बहिया मित्तमिच्छसि ?" –'हे आत्मन् ! तू ही तेरा मित्र या बन्धु है, बाहर के मित्र या बन्धु को पाने की इच्छा क्यों करता है ?' निष्कर्ष यह है कि मनुष्य को दुःख, कष्ट और आफत के समय दूसरों से सहायता की अपेक्षा और आशा नहीं रखनी चाहिए। दूसरों से बन्धुता की आशा और अपेक्षा रखने में बहुत बार मनुष्य को निराशा और हताशा पल्ले पड़ती है, उसकी आकांक्षा व आशा पूर्ण नहीं होती, तब उसे और अधिक कष्ट होता है, उसे मानसिक पीड़ा अधिकाधिक हो जाती है। यह व्यक्ति की निर्बलता है कि वह बाहर के बन्धु की अपेक्षा रखता है। फिर भी अगर मनुष्य बाहर के बन्धु की अपेक्षा और आशा न रखे तो वह बहुत-से क्लेश, द्वन्द्व और मानसिक सन्तापों से बच सकता है और अपनी आत्मा को भी सशक्त, स्वाधीन और कष्टसहिष्णु बना सकता है। इसी दृष्टिकोण से भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में सहाय-प्रत्याख्यान (सहायक के त्याग) से बहुत बड़ा लाभ बताया है । लोक व्यवहार में बन्धु की आवश्यकता किन्तु संसार में सब लोग-साधु हों या गृहस्थ-इतने आत्मबली नहीं होते कि वे कष्ट, संकट और आफत के समय किसी सहायक, बन्धु या मित्र की अपेक्षा न रखें। निश्चय दृष्टि से या इतनी पारमार्थिक या उच्च दृष्टि से चलने वाले कितने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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