SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २१७ कहा-आओ बहन ! मैं तुम्हारा बन्धु बनता हूँ। तुम मेरे साथ चलो, मैं तुम्हारे धर्म-शील की रक्षा करूँगा और तुम्हारे सुखी जीवन यापन की भी व्यवस्था करूँगा। इनमें से ऐसा कोई भाई नहीं दिखाई देता, जो तुम्हारा उद्धार कर सके ।" उस नारी की आँखें कृतज्ञता से सजल हो गयीं। उसे सम्राट् ब्रह्मदत्त बन्धु के रूप में मिल गए, जिसे उसकी आँखें ढूंढ़ रही थीं। हाँ तो मैं कह रहा था कि इस संसार में स्वार्थी पति-पुत्र तो बहुत मिलते हैं, जिनसे आफत और संकट के समय कोई सहायता नहीं मिलेगी, मगर बन्धु बहुत बिरले मिलते हैं, जिनसे इस संसाररूपी भयंकर वन को पार करते समय मदद मिल सके, जो परस्पर सहायक होकर एक-दूसरे का बोझ हलका कर सके। आप और हम शान्ति-पथ के पथिक हैं। इस प्रवास में क्या आपको ऐसे बन्धु की अपेक्षा नहीं रहती जो जाति, धर्म निर्धन-धनिक, निर्बल-सबल आदि का भेदभाव भूलकर प्रेम से आपके सामने विपत्ति के समय सहयोग का हाथ बढ़ा सके, बन्धुभाव बढ़ा सकें। __ यों तो आत्मा ही आत्मा का बन्धु है वैसे अगर दीर्घदृष्टि से सोचा जाए तो जीवनयात्रा में आत्मा के सिवाय हमारा कोई बन्धु नहीं है। आप जानते हैं कि प्रत्येक प्राणी विभिन्न योनियों और गतियों में अनन्त-अनन्तकाल से यात्रा करता चला आ रहा है। उसकी इस यात्रा में उसे अपने कर्मों के अनुसार अनेक प्रकार के दुःख और यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं । ऐसी स्थिति में उस प्राणी की आत्मा के सिवाय और कोई बन्धु साथ में नहीं रहता । शरीर, मन, अंगोपांग आदि भी तभी तक साथ रहते हैं, जब तक उस प्राणी का आयुष्य है। आयुष्य समाप्त होते ही ये एक क्षण भी नहीं रहते। अन्य साथी भी दुःख एवं यातनाएँ भोगते समय प्रायः बहुत ही विरले होते हैं, जो आपके दुःख भोगने में मदद करते हों। नरक गति तिर्यञ्च गति और देवगति में तो वहाँ के जीवों को अपने दुःख स्वयं ही भोगने पड़ते हैं। नरक में कोई दुःख और आफत के समय बचाने नहीं आता, देवलोक में भी परिवार व्यवस्था या समाज व्यवस्था प्रायः नहीं है, वहाँ भी स्वतः ही दुःख भोग करना होता है, तिर्यञ्चों में एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जीवों तक में कोई दुःखभोग में सहभागी नहीं होता। पंचेन्द्रिय जीवों में भी जिन जीवों में झण्ड-बाँधकर रहने की आदत होती है, वे संकट के समय कदाचित् किसी के मददगार हो जाते हैं, परन्तु प्राकृतिक प्रकोपों के समय अक्सर वे मूक और लाचार बन कर अकेले-अकेले दुःख और पीड़ा भोगते हैं। रही बात मनुष्य की। मनुष्य परिवार, समाज और राष्ट्र आदि इसीलिए बनाता है कि संकट के समय एक दूसरे को सहायता दे सके । परन्तु कई अवसरों पर मनुष्य भी दूसरे मनुष्य के कष्ट और पीड़ा में हाथ नहीं बँटा सकता। जैसे किसी को कोई बीमारी है। बीमारी की हालत में परिवार समाज एवं राष्ट्र वाले उसे दवा दे सकते हैं, वैद्य, डाक्टर आदि को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy