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२१६ आनन्द प्रवचन : भाग ८
वहीं लंगर डाल दिये गये जहाँ एक नौका पहले से रुकी खड़ी थी। सब लोग दौड़ कर उधर पहुँचे, जहाँ से किसी महिला के रोने की आवाज आ रही थी और देखा कि एक दस्यु एक नारी को पकड़ कर पीट रहा है । वह महिला कह रही है— "दुष्टो ! मैं भारतीय नारी हूं । शील मेरा धर्म और पति के प्रति निष्ठा मेरी साधना है । मैं तुम्हारी दुष्टता के आगे नहीं झुकूंगी, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जाएँ ।”
ब्रह्मदत्त के ललकारने पर दस्यु भाग खड़े हुए। समीप आ कर सम्राट् ने कहा - "भद्र ! मैं तुम्हारा परिचय तो तुम्हारे शब्दों से पा चुका कि तुम एक तेजस्वी आर्यनारी हो । तुमने भारतीय नारी के आदर्शों में निष्ठा व्यक्त करके आर्य संस्कृति का मुख उज्ज्वल किया है । इसलिए तुम सम्मान की अधिकारिणी हो । तुम मेरे साथ चलो और अपने देश में अपने पति पुत्रों के साथ सुख से जीवन यापन करो ।”
महिला बोली - " राजन् ! दुष्ट दस्युओं ने मेरे पति को मार डाला है । मेरे पुत्र मुझे छोड़कर पहले से ही अलग हो चुके हैं, अब मैं किसी हितैषी व्यक्ति का आश्रय चाहती हूँ, जिसके सहारे जीवनयापन कर सकूँ ।"
" इसका प्रबन्ध देश लौटकर करेंगे, " यह कहकर सम्राट् ने उस महिला को साथ ले लिया और स्वदेश की ओर लौट पड़े ।
जलयान जब भारतीय समुद्री तट पर रुका तो महाराजा के स्वागत के लिए विशाल जन समुदाय - जिसमें महारानी, मन्त्रिगण और सामन्त सभासद भी आगे बढ़े। उनकी ओर संकेत करते हुए संम्राट् ने उस महिला से कहा - " भद्र े ! इन आगन्तुकों में से तुम जिसे अपने पति -पुत्र के रूप में चुनना चाहो, चुन सकती हो, तुम्हारे सुखी जीवन के लिए मैं सारी व्यवस्थाएँ जुटा दूंगा ।"
स्त्री की आँखें डबडबा आईं। उसने कहा - " राजन् ! मेरा पति था, जिसने . मुझे अपनी वासना से जकड़ा और घर की चहारदीवारी में बन्द कर मेरा स्वास्थ्य लूटा। मुझे ऐसा भी न रहने दिया कि मैं आततायियों से मुकाबला कर सकती । मैं अज्ञान - अशिक्षा में ग्रस्त रही। पति की प्रवन्चना ने मुझे दासी बना कर छोड़ दिया । इसलिए अब मुझे पति नहीं चाहिए ।" 'और पुत्र !” उसने आगे कहा— पुत्रों को मैंने अपनी देह का रस निचोड़ कर पाला-पोसा । स्वयं कष्ट झेले, उनकी सेवा, शिक्षा और पालन-पोषण में कमी आने दी। वे ही पुत्र जब बड़े हुए तो उनसे इतना भी न हो सका कि गाढे संकट में मेरी रक्षा करते ! अतः ऐसे कृतघ्न पुत्र लेकर भी अब मैं क्या करूँगी ? हाँ, जो मेरे शील-धर्म की रक्षा कर सके, ऐसे साहसी और चरित्रवान बन्धु की मुझे आवश्यकता अवश्य है | यदि आप उसकी पूर्ति कर सकते हों तो, मेरे लिए ऐसे एक बन्धु की व्यवस्था कर दें । "
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ब्रह्मदत्त ने उपस्थित जनसमूह पर आँखें दौड़ा कर देखा - सबकी आँखें झुकी हुई थीं । कोई भी बन्धु बनने के लिए तैयार नहीं था । अन्त में ब्रह्मदत्त ने स्वयं
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