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________________ बान्धव वे, जो विपदा में साथी २१५ परमात्मा को भी दीनबन्धु कहा जाता है, क्यों ? वे दीनों, असहायों एवं पतितों की सच्चे हृदय से की हुई पुकार को शीघ्र सुनते हैं। सुनते क्या हैं ? ऐसे व्यक्ति के अन्तःकरण में पड़ी हुई मलिनताओं को दूर करने की प्रबल प्रेरणा जगा देते हैं। उसे इस प्रकार का स्वस्थ बोधि लाभ प्राप्त हो जाता है, जिससे वह अपने जीवन पर आए हुए संकटों और कष्टों को स्वयं मिटाने में समर्थ हो जाता है। फिर भी भक्त भक्ति की भाषा में ऐसे अध्यात्म प्रेरक, दीनबन्धु प्रभु से प्रार्थना करता है ___ 'आरुग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दितु' 'प्रभो ! मुझे स्वस्थ बोधिलाभ एवं उत्तम समाधि प्रदान करें। मानवजीवन विविध क्षेत्रों में बँटा हुआ है, पारिवारिक क्षेत्र के अतिरिक्त भी सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक आदि विविध क्षेत्रों में मानव को संकट, कष्ट, आफत, दुःख, विपत्ति और व्यसन, के समय सच्चे हितैषी बान्धव की अपेक्षा रहती है, इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते । बन्धु और सुहृत् की उपयोगिता बताते हुए नीतिकार कहते हैं "व्याधितस्यार्थहीनस्य देशान्तरगतस्य च । नरस्य शोकदग्धस्य सुहृद् दर्शनमौषधम् ॥" रोग से पीड़ित होने पर, निर्धन हो जाने पर, परदेश या विदेश में आकस्मिक संकट आ पड़ने पर, और शोक से संतप्त होने पर, सुहृद् निःस्वार्थ हितैषी बन्धु के दर्शन औषधि का काम करते हैं । अमेरिका के धनकुबेर हेनरीफोर्ड से किसी पत्रकार ने पूछा "आपके जीवन में कौन-सी ऐसी कमी रह गई है, जिसे आप बहुत महसूस कर रहे हों ?" उन्होंने कहा-“अपार धन, सम्पत्ति एवं वैभव होने पर भी मेरे जीवन में सबसे बड़ी कमी यह रह गई कि मैं एक भी निःस्वार्थ हितैषी मित्र-बान्धव नहीं बना सका।" वास्तव में जीवन की लम्बी यात्रा में ऐसे निःस्वार्थ बन्धुओं की पद-पद पर आवश्यकता रहती है। एक पाश्चात्य लेखक.टी. वी. स्मिथ ने ठीक ही कहा है "Brotherhood....is in essence a hope on the road the long road-to fulfillment." -संक्षेप में कहें तो बन्धुता-भाईचारा-जीवन यात्रा की लम्बी सड़क पर एक आसरा है, यात्रा को पूर्ण करने के लिए।" ___ मुझे सिर्फ बन्धु चाहिए वाराणसी नरेश ब्रह्मदत्त सिंघल द्वीप से आर्यावर्त लौट रहे थे । जलयान एक छोटे-से द्वीप के निकट से गुजरा, तभी एक नारी की चीख सुनाई दी। जलयान के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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