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________________ ११ बान्धव वे, जो विपदा में साथी प्रिय आत्मबन्धुओ ! आज मैं आपके समक्ष ऐसे जीवन की मीमांसा करना चाहता हूँ, जो आपत्ति में, दुःख में, पीड़ा में मानव का साथ दे । मानव, चाहे वह परिचित हो या अपरिचित; सुखी रहा हो, या दुःखी; व्यसनी हो या निर्व्यसनी; अपने धर्मसम्प्रदाय का हो या अन्य धर्मसम्प्रदाय का हो; अपनी जाति-कौम का हो या दूसरी जाति-कौम का हो; अपने देश या प्रान्त का हो या दूसरे देश या प्रान्त का हो, अपने गाँव-नगर का हो या अन्य ग्राम-नगर का हो; कोई भी मानव हो, अगर वह विपत्ति में है, असहाय है, दुःखी है, पीड़ित है, रुग्ण है, या किसी भी कष्ट से व्यथित-चिन्तित है और वह पुकार कर रहा है, कराह रहा है, दयनीय स्थिति में है, उस मानव को जो उस समय सहायता देता है, उसकी पीड़ा को दूर करने के लिए प्रयत्न करता है, वही बान्धव है, वही बन्धु है, वही सहायतादाता है और आपत्त्राता है। इसीलिए गौतमकुलक में दसवाँ जीवन सूत्र बताया गया है 'ते बंधवा, जे वसणे हंवति' -बान्धव वे ही हैं, जो दुःख और विपत्ति में सहायक हों। बान्धव की आवश्यकता क्यों ? प्रत्येक मनुष्य प्रायः अपने परिवार के सान्निध्य में ही जन्म लेता है, किसी का परिवार छोटा-सा--केवल एक या दो सदस्यों का होता है और किसी का बड़ा होता है। परिवार से वह सुरक्षा और उपकार की आशा रखता है । समय आने पर परिवार मनुष्य की बड़े से बड़े संकट से रक्षा करता है, उसे सहायता देता है। परिवार का निःस्वार्थ प्रेम ही परस्पर सहयोग और सहायता के लिए एक दूसरे को प्रेरित करता है । परन्तु कई बार परिवार एकदम छोटा होता है, या परिवार में कोई कमाने वाला नहीं होता, या परिवार में महिलाएँ रुग्ण, अशक्त, वृद्ध या धनोपार्जन करने योग्य नहीं होतीं, बच्चे छोटे होते हैं, अबोध लड़कों पर कोई आजीविका का भार नहीं डाला जाता, अथवा परिवार में दो ही सदस्य हैं, पिता और बच्चा या माता और बच्चा; ऐसे समय में बीमार पिता या बीमार माँ को दूसरे की सहायता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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