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________________ सत्त्ववान् होते दृढ़धर्मी २०५ है, परन्तु उसका स्थूल होना आवश्यक नहीं है, इसी प्रकार सत्त्ववान् बलवान होता है, परन्तु उसमें पाशविक बल का होना आवश्यक नहीं है, मनोबल एवं आत्मबल का होना ही नितान्त आवश्यक है । सत्ववान में कौन-कौन से गुण आवश्यक ? मैंने सत्त्ववान् शब्द पर काफी गहराई से चिन्तन किया है । मैं समझता हूँ, भगवद्गीता के १६ वें अध्याय में उक्त देवीसम्पदा के जो २६ गुण बताए हैं, वे सत्त्ववान् व्यक्ति में होने आवश्यक हैं । दैवीसम्पत्ति के २६ गुण इस प्रकार बताए हैंअभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञान योगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ १॥ अहिंसा, सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । दया भूतेस्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम् ||२| तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति सम्पदं दैवोमभिजातस्य भारत ! ॥३॥ हे अर्जुन ! दैवीसम्पदा को प्राप्त अभिजात व्यक्ति में ये २६ लक्षण ( गुण) होते हैं - ( १ ) अभय, (२) सत्वसंशुद्धि (अन्तःकरण की अच्छी तरह स्वच्छता) (३) तत्त्वज्ञान के लिए ध्यान योग में दृढ़स्थिति ( धर्म ध्यान में सततलीनता ), ( ४ ) सात्त्विक दान, (५) दम ( इन्द्रियदमन ), (६) वीतराग भगवान् की पूजा-भक्ति, (७) स्वाध्याय, (८) तप, (६) सरलता, (१०) अहिंसा, (११) सत्य, (१२) अक्रोध, (१३) त्याग, (१४) शान्ति, (१५) पैशुन्य ( चुगली - निन्दा ) का त्याग, (१६) प्राणियों पर दया, (१७) विषयासक्ति न होना, (१८) मृदुता - कोमलता, (१९) लज्जा ( पाप कर्म करने में लज्जा) (२०) चंचलतापूर्वक व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, (२१) तेज ( आत्मशक्ति), (२२) क्षमा, (२३) धैर्य, (२४) शौच ( अन्तर - बाह्य पवित्रता ) (२५) अद्रोह ( किसी के प्रति बैर-द्व ेष न होना ), ( २६ ) अपने आपको उत्कृष्ट मानने की वृत्ति का अभाव । इसके अतिरिक्त मैंने प्रारम्भ में बताया था, उसके अनुसार सत्त्ववान व्यक्ति में निम्नलिखित विशेषताएँ तो होनी ही चाहिए १. उसका मनोबल मजबूत हो, उसमें दृढ़ संकल्प शक्ति हो । २. वह विपत्तियों में घबराए नहीं ३. वह कठिनाइयों में हिम्मत न हारे । ४. बुराइयों से डर कर भागे नहीं. उन्हें बदलने का प्रयास करें । ५. वह साहस - देव की उपासना करे: कायरता छोड़े । ६. दुःखों से डरे नहीं, डटकर उनका सामना करे । ७. धर्म और धर्मेनर पदार्थों के अविरत संग्राम में वह युद्ध की-सी तत्परता दिखाए । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004011
Book TitleAnand Pravachan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1979
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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